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________________ नववाँ गुणस्थान. (१४५) व्याख्या-आठवें गुणस्थानको समाप्त करके क्षपक योगी अनिवृत्तिवादर नामक नववें गुणस्थानको प्राप्त करता है। नववें गुणस्थानके नव विभाग होते हैं, उन नव विभागोंमें क्षपक महात्मा क्रमसे कर्म प्रकृतियोंको क्षय करता है। पहले विभागमेंनरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यगनुपूर्वी, साधारण नाम, उद्योत नाम, मूक्ष्म नाम, द्वीन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तक तीन विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय जाति, आताप नाम, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला तथा स्त्यानड़ि, ये तीन निद्रा और स्थावर नाम, एवं इन सोलह कर्म प्रकृतियोंको क्षय करता है, याने सत्तामेंसे नष्ट कर देता है। अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय, जो मध्यके आठ कषाय हैं, अर्थात् अनन्तानुवन्धि और संज्वलनके कषायोंकी चौकड़ीको छोड़ कर बीचके आठ कषायोंको क्षपक योगी दूसरे विभागमें क्षय करता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धि चार कषायोंको तो क्षपक महात्मा प्रथम ही नष्ट कर आया है। तीसरे विभागमें नपुंसक वेदको नष्ट करता है, चौथे भागमें स्री वेदको क्षय करता है और पाँचवें विभागमें हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्ता, इन छः प्रकृतियोंको क्षय • करता है, एवं छठे विभागमें पुरुष वेद, सातवेमें संज्वलन क्रोध, आठवेंमें संज्वलन मान और नववें विभागमें संज्वलन मायाको क्षय करता है। इस प्रकार क्रमसे कर्म प्रकृतियों को सत्तासे क्षय करता हुआ क्षपक महात्मा प्रति समय अपनी आत्माको अति निर्मल करता हुआ आत्म ध्यानमें लीन रहता है। इस दशामें पूर्वोक्त महात्माको आत्म स्वरूप चिन्तवनके सिवाय संसारका कुछ भी ज्ञान नहीं होता, वह निरन्तर नितान्त आत्म स्वरूपके चिन्तवनमें ही मग्न रहता है। इस गुणस्थानमें रहा हुआ महात्मा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्ता, इन छः प्रकृतियोंके बन्धका अभाव ૧૦
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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