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________________ आठवाँ गुणस्थान. ( १४१ ) अवलंबनसे जिस ध्यानमें अन्तर्जल्प याने विचारणात्मक अन्तरंग ध्वनिरूप वितर्क उत्पन्न होता है उसे ही सवितर्क ध्यान कहते हैं । अब सविचार ध्यानका स्वरूप लिखते हैंअर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छब्दान्तरे च संक्रमः । योगायोगान्तरे यत्र, सविचारं तदुच्यते ॥ ६३ ॥ श्लोकार्थ - जिस ध्यानमें अर्थसे अर्थान्तर में, शद्धसे शहान्तरमें तथा योगसे योगान्तर में संक्रमण होता है, उसे सविचार ध्यान कहते हैं । व्याख्या - जिस ध्यानमें पूर्वोक्त विचारणात्मक एक अर्थसे दूसरे अर्थ में, एक शद्धसे दूसरे शद्धमें और एक योगसे दूसरे योग में संक्रमण होता है, उसे ही सविचार या संसंक्रमण ध्यान कहते हैं । अब पृथक्त्वका स्वरूप बताते हैं द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद्याति गुणान्तरं । पर्यायादन्यपर्याय, सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥ ६४ ॥ श्लोकार्थ- द्रव्यसे द्रव्यान्तरमें, गुणसे गुणान्तरमें और पर्यायसे पर्यायान्तरमें जो पूर्वोक्त वितर्कका गमन होता है उसे सपृथक्त्व ध्यान कहते हैं । व्याख्या - पूर्वोक्त वितर्क जो अर्थ, व्यंजन, योगान्तरों में संक्रमण रूप भी स्वकीय निर्मल आत्म द्रव्यान्तरमें गमन करता है या गुणसे अन्य गुणमें और पूर्व पर्यायोंसे अपर पर्यायोंमें संक्रमण करता है, उसे ही सपृथक्त्व कहते हैं। द्रव्यमें जो सहभावी धर्म होता है, उसे गुण कहते हैं और उसी द्रव्यमें जो क्रमभावी धर्म है उसे पर्याय कहते हैं ।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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