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________________ ( ८६ ) गुणस्थानक्रमारोह. पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद, ये नव नोकषाय । एवं २५ पच्चीस कषाय होते हैं । ये पच्चीस कषाय आत्मीय गुणको प्रगट होनेमें रुकावट करते हैं इतना ही नहीं किन्तु आत्माको सदा काल कर्मरूप उपाधी से आच्छादित करते रहते हैं। पंद्रह योग होते हैं, सत्य मन योग, असत्य मन योग, मिश्र मन योग, व्यवहार मन योग, ( अपेक्षा से सत्य भी नहीं तथा अपेक्षासे असत्य भी नहीं) सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा, व्यवहार भाषा, औदारिक शरीर (सात धातुओंसे बना हुआ मनुष्य तथा तिर्यंचोंका शरीर) औदारिकमिश्र शरीर - औदारिक शरीर पैदा होते समय कार्मण शरीर के साथ औदारिक पुगलोंकी मिश्रता होने से औaftaar शरीर होता है। वैक्रिय शुभाशुभ शरीर-शुभ तथा अशुभ पुगलों से बना हुआ नारकी तथा देवताओंका वैक्रिय शरीर । वैक्रियमिश्र शरीर - वैक्रिय शरीरकी जब उत्पत्ति होती है उस वक्त जीव उत्तर वैक्रिय करता है, उस समय जो मिश्रता रहती है उसे वैक्रियमिश्र कहते हैं । आहारक शरीर - पूर्ववर मुनि महात्मा अपने मनोगत संशयको दूर करनेके लिए अपनी शक्तिसे एक पुतला बनाकर और उसमें अपने आत्म प्रदेशों का प्रक्षेप करके उसे केवल ज्ञानी महात्मा के पास भेजता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं । आहारकमिश्र शरीर - पूर्वोक्त पुतलेको बनाते समय तथा संहरण करते जो मिश्रता रहती है, उसे आहारक मिश्र कहते हैं । कार्मणकाय योग - जिस समय जीव पूर्व शरीरको त्याग कर दूसरे शरीरमें जाता है, उस समय भी यह कार्मण शरीर जीवके साथ रहता है, इस शरीर में कर्मणाओं का संचय रहता है, जब तक जीव संसारमें रहता है तब तक चारों ही गतिमें कार्मण शरीर जीवके साथ सदा काल रहता है । ये पूर्वोक्त पन्द्रह योग सदा काल कर्म वर्गणा 1
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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