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________________ छठा गुणस्थान. ( ८१ ) दयाका स्वरूपं जाने विना उसका पालन नहीं हो सकता, अतः जीवों की दशा तर्फ दृष्टिपात करने की जरूरत है । संसारमें स तथा स्थावर जीव पूर्वकृत कर्मके वशीभूत होकर शारीरिक रोग तथा मानसिक चिन्तासे अत्यन्त दुःखोंका अनुभव कर रहे हैं। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि मनुष्य जातिमें भी अनेक मनुष्य लुले, लँगड़े, अन्धे, पाँगले, कुष्टी, अपंग होकर महाकष्टमयी दशामें अपने जीवनको बिता रहे हैं । उन विचारे दुःख पीड़ित जीवोंकी दशा देख कर अपने अन्तःकरणमें उनके ऊपर अतिशय दयाई भाव लाना या शक्ति होने पर उनके दुःखको दूर करनेका उपाय करना चाहिये । तिर्यच जातिमें पशु पक्षी वगैरह विचारे अन्न वस्त्र घर रहित हैं, निराधार हैं । उन विचारोंको भूख प्यास जाड़ा धूप आदि अनेक प्रकारके दुःख पराधीनतासे सहन करने पड़ते हैं। वे कर्मवश अपना दुःख दूसरेको कह भी नहीं सकते, उन्हें जो वेदनायें होती हैं उन वेदनाओं को उनकी आत्मा ही जानती है । तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोंसे चौरिन्द्रिय जीवोंको अधिक दुःख अनुभव करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें पंचेन्द्रिय जीवोंसे एकेन्द्रिय कम होती है । एवं चौरिन्द्रियवाले जीवों से त्रीन्द्रियवाले जीवोंको, त्रीन्द्रियवाले जीवोंसे द्वीन्द्रियनाले जीवोंको, द्वीन्द्रियवालोंसे स्थूल एकेन्द्रियवालोंको और स्थूल एकेन्द्रियवाले जीवोंसे निगोदवाले (सूक्ष्म एकेन्द्रियवाले) जीवोंको क्रमसे अधिकाधिक ही दुःख होता है । निगोद में एक शरीर के अन्दर अनन्त जीव एकत्रित होकर रहते हैं । निगोदवाले जीव एक मुहूर्त में याने अड़तालीस मिनिटमें ६५५३६ जन्म मरण धारण करते हैं । निगोदवासी जीव अनन्त अव्यक्त वेदनाको सहन करते हैं । इस प्रकार पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से वे रंक जीव पराधीन होकर अनेकानेक
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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