SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 917
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० अनुयोगद्वारसूत्र 'मुवहुंपि मुयमहीयं, कि काही चरणविप्पमुक्कस्स? । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥ नाणं सविसनिययं, न नाणमित्तेण कज्जनिष्फत्ती । मग्गण्णू दिलुतो, होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥२॥ जाणतो वि य तरिउ, काय जोगं न जुजई जो उ। सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥३॥ जहा खरो चंदणभारवाही० ॥ छाया-सुबहपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरणविषमुक्तस्य ? । अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहस्रकोटिरपि ॥१॥ ज्ञानं स्वविषयनियतं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः । मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति सचेष्टोऽचेष्टश्च ॥२॥ साधक होने से क्रिया में ही मुख्यता आती है इस प्रकार का जो क्रिया प्रधान उपदेश है, वह क्रियानयरूप है । इस पक्षकी सिद्धि करनेवाली युक्ति इस प्रकार से है । 'क्रियैव पुरुषार्थसिद्धिं प्रति मुख्य कारणं अत. एव तीर्थंकर गणधरैर्निष्क्रियाणां ज्ञानस्य नेष्फल्यमुक्तं' पुरुषार्थसिद्धि के प्रति कारण क्रिया ही है-इसलिये-तीर्थकरगणधरादिकों ने निष्क्रियमनुष्यों के ज्ञान को निष्फल कहां है । जैसे-'सुबटुंपि सुयमहीयं' इत्यादि बहुत अधिक श्रुत का अध्ययन करके भी जो चारित्ररूप क्रिया से रहित होता है उस व्यक्ति का वह अधीत श्रुत क्या कर सकता है। जिस प्रकार जलती हुई लाखों दीपों की पंक्ति अन्धे को प्रकाश नहीं दे सकती है ॥१॥ ज्ञान अपने विषय में नियत होता है-एतावता ज्ञानमात्र से कार्य की निष्पत्ति नहीं होती है। मार्ग को जाननेवाला होता हुआ भी उसमें पक्षी सिद्धि नारी युति 20 प्रमाणे क्रियैव पुरुषार्थसिद्धि प्रति मुख्य कारण अतएव तीर्थ करगणधरै निष्क्रियाणां ज्ञानस्य नैष्फल्यमुक्तम्' ५३पाय સિદ્ધિનું મુખ્ય કારણ કિયા જ છે, એથી તીર્થકર ગણુધરાદિકે એ નિષ્ક્રિય भनुष्याने ज्ञान भे निण हा छ २म 'सुबहु पि सुयमीयं' इत्यादि पर જ શ્રાધ્યયન કર્યા પછી પણ જે ચારિત્ર રૂપ કિયાથી રહિત હોય છે, તેનું તે અધીત શ્રત શું કરી શકે છે? જેમ સળગતી લાખે દીપપંકિતએ આંધળાને પ્રકાશ આપી શકતી નથી ૧ જ્ઞાન પિતાના વિષયમાં નિયત હોય છે, એતાવતા જ્ઞાનમાત્રથી કાર્યની નિષ્પત્તિ થતી નથી. માર્ગને જાણનાર હોવા છતાં એ તેમાં સચેષ્ટ, સક્રિય For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy