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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १८५ भावप्रमाणनिरूपणम् होते हैं । कर्मधारय में उपमान उपमेय तथा विशेषण विशेष्य का समास होता है । यदि विशेषण प्रथम हो तो विशेषण पूर्वपद कर्मधारय, उपमान प्रथम हो तो उपमानपूर्वपद कर्मधारय, उपमान बाद में हो तो उपमानोत्तर पद कर्मधारय कहलाता है । यथा 'कृष्णः मृगःकृष्णमृगः' यह विशेषणपूर्वपद कर्मधारय है । 'घन इव श्यामः घनश्यामः' यह उपमानपूर्वपद है । 'पुरुषः सिंह इव पुरुषसिंहः' यह उपमानोत्तर कर्मधारय है । जिस समास में प्रथय पद संख्यावाचक हो और समाहार का बोध हो तो, वह समास द्विगु कहलाता है । यह नपुंसकलिंग तथा प्रथमा विभक्ति का एक वचन ही आता है । जैसे 'त्रिकटुकम् ' आदि जिसमें अन्य पद की प्रधानता होती है, वह बहुव्रीहि समास है । इसके विग्रह में इदम् या यत् शब्द की प्रथमा विभक्ति को छोड़कर कोई न कोई विभक्ति लगी हुई होती है। जैसे फुल्ल कुटुज कदम्ब । संघपति आदि जिसमें पूर्वपद प्रधान हो, वह अव्ययीभाव समास है इसमें पूर्वपद अव्यय और दूसरा नाम होता है । इनके अंत में सदा नपुंसकलिङ्ग प्रथमा एकवचन रहता है। अनुग्रामम् अनुनदिकम् उपनदि इत्यादि । एक शेष समास का स्वरूप सुगम है | सू०१८५ તેમજ વિશેષણ વિશેષ્યને સમાસ થાય છે. જે વિશેષણુ પ્રથમ હાય ત વિશેષણુ પૂ પદ્મક ધારય, ઉપમાન પ્રથમ હાય તા ઉપમાન પૂર્વ પદ કમ - ધારય, ઉપમાન પછી હાય તેા ઉપમાનેાત્તર પદ કર્મધારય કહેવાય છે. જેમ - कृष्णः मृगः, कृष्णमृगः, या विशेषण पूर्व यह उमधारय छे घनइव श्यामः, घनश्यामः, भी उपमान पूर्व यह छे. पुरुषः सिंह इव पुरुषसिंहः मा उपमाનાત્તર કમ ધારય છે. જે સમાસમાં પ્રથમ પદ્ય સખ્યાવાચક હાય અને સમાહારના મેધ થાય તે, તે સમાસ દ્વિગુ કહેવાય છે. આમાં નપુંસકલિંગ तेभन प्रथमा विभक्तिना मेऽवयननी अपेक्षा रहे छे. प्रेम - ' त्रिकटुकम् ' વગેરે જેમાં અન્ય પદની પ્રધાનતા હાય છે, તે બહુવ્રીહિ સમાસ છે. આના विश्रडभां ' इदम् ' अथवा ' यत्' शब्हनी प्रथमा विभक्ति सिवाय गमे ते भील विलति ससग्न होय ४ छे. प्रेम है- 'फुल्ल कुटुजकदम्ब, संघपति' वगेरे જેમાં પૂર્વીપદ પ્રધાન હેાય તે અવ્યયીભાવ સમાસ છે. આમાં પૂર્વપદ અવ્યય અને ખીજું નામ હોય છે. આના અંતમાં સદા નપુÖસક લિંગ અને પ્રથમા मेऽवयन रडे छे. 'अनुग्रामम्, अनुनदिकम्, उपनदि, वगेरे. शेशेष सभास સરળ જ છે. તે વિષે અહીં કંઈ કહેવું ચૈગ્ય નથી, પ્રસૂ॰૧૮૫૫) अ० ९ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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