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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वार संख्येयकं भवति, ततः परं अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि यावत् उत्कर्ष कम् असंहपेयासंहोयकं न पाप्नोति । उत्कर्ष का असंख्येय संख्येयकं कियद् भवति ? जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कर्ष कम् असंख्येयासंख्येयकं भाति, अथवा जवन्यकं परीतानन्तकरूपोनम् उत्कर्षः कम् असंख्येयासंख्येयकम् भाति ।।२३५॥ टीका-एवामेव' इत्यादि असंख्येयास्त्र परूणावसरेऽपि एवमेव-पूर्ववदेव अनवस्थितपल्यादि निरू. पगा कर्तव्या । अवस्थितपल्यादिनिरूपणेन पूर्वम् उत्कर्षकं संख्येयकम् एक रूाधिकं दर्शितम् । तत्र उत्कर्ष के संख्येयके पूर्वदर्शितं सर्पपलक्षणम् अधिक एकं रूपं पक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते च तस्मिन् जघन्य परीतासंख्येयकं भवति । ततः परम् परीतासंख्येयकस्य अजघन्यानुत्कर्ष काणि स्थानानि भवन्ति, यावदुत्कृष्टं इस प्रकार तीन प्रकार के संख्यातों का स्वरूप कहकर अब सूत्रकार नौ प्रकार के असंख्यातों का वर्णन करते हैं 'एवामेव उक्कोसए संखेज्जए' इत्यादि। शब्दार्थ--(एवामेव) असंख्यात की प्ररूपणा के अवसर में भी पूर्व के जैसा ही अनवस्थित पल्प आदिकों की प्ररूपणा कर लेनी चाहिये। अनवस्थित पल्य आदि के निरूपग से यह हम जान चुके है कि-एकरूप अधिक उत्कृष्ट संख्यान होता है। 'उक्कोसर संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भव:) इस उत्कृष्ट संख्यात के प्रमाण में जब पूर्वदर्शित एक सर्षप और अधिक प्रक्षिप्त कर दिया जाता है, तब जयन्य परीतासंख्यक का प्रमाग होता है। (तेण परं अजहपणमणुक्कोलयाई ठाणाई जाव उककोसंयं परित्तामखेज्जयंन पावह) આ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકારના સંખ્યાનું સ્વરૂપ કરીને હવે સૂત્રકાર નવા પ્રકારના અસંખ્યાતનું વર્ણન કરે છે – एवामेव उक्कोसए संखेज्जए इत्यादि । शहाथ:-(एवामेव) असभ्यातनी ४३५१। ४२ती मते ५५ पूना જેમ જ અનવસ્થિત પય વગેરેની પ્રરૂપણું કરી લેવી જોઈએ. અનવસ્થિત પલ્ય વગેરેના નિરૂપણથી આ અમે જાણી લીધું છે કે “એક રૂપ અધિક Score सध्यात य छे.' (उनकोसए संखेज्जए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं संखे जयं भाइ) A! Gष्ट सभ्यातना प्रभाशुभ न्यारे पूर्व अथित से सर्षय વધારે નાખવામાં કરવામાં આવે છે ત્યારે જઘન્ય પરીતાસંખ્યકનું પ્રમાણ हाय छे. (वेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ता For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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