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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ अनुयोगद्वारसूत्रे प्रस्थक दृष्टान्तेन-अथ यथानाम कोऽपि पुरुषः परशुं गृहीत्वा अटवीसम्मुखं गच्छति तं दृष्ट। कोऽपि वदति-कुत्र एवं गच्छसि ? अविशुद्ध गमो भणति द्वारा स्पष्ट किया गया है- (त जहा) जैसे (पत्थगदितेणं, वसहिदितेणं परसदिते) प्रस्थक के दृष्टान्त से, वसति के दृष्टान्त से और प्रदेश के दृष्टान्त से । तात्पर्य कहने का यह है कि- 'प्रत्येक जीवादिक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उन अनंतधमों में से अन्यधमों को गौण कर के और विवक्षित धर्म को मुख्य करके वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला वक्ता का जो अभिप्राय होता है, उसका नाम नय है । इस नयरूप प्रमाण का नाम नय प्रमाण है । इसकी प्ररूपणा प्रस्थक दृष्टान्त से वसति दृष्टान्त से और प्रदेश दृष्टान्त से करने में आई है, इसलिये नय को तीन प्रकार का कहा गया है। (से किं तं पत्थगदिइंतेणं) हे भदन्त ! प्रस्थक दृष्टान्त को लेकर जो नयप्रमाण कि प्ररूपणा की गई है, वह किस प्रकार से है ? उत्तर -- ( पत्थगदिई सेणं) प्रस्थक दृष्टान्त को लेकर जो नयप्रमाण कि प्ररूपणा की गई है वह इस प्रकार से है- ( से जहाना मए केई पुरिसे परसुं महाय अडबीसमहुतो गच्छेन्ना) जैसे कोई पुरुष परशु (कुठार) लेकर जंगल की ओर जा रहा था (लं पासित्ता) उसे उस ओर जाता छे. ( त जहा ) मेन (पत्थदिवे, वसहिदितेणं पएसदितेणं) प्रस्थना દૃષ્ટાન્તથી વસતિના દૃષ્ટાન્તથી અને પ્રદેશના દૃષ્ટાન્તથી, તાપ કહેવાતુ. આ પ્રમાણે છે કે પ્રત્યેક જીવાદિક વસ્તુ અનંતધર્માત્મક છે. તે અનત ધર્મોમાંથી અન્ય ધર્મોને ગૌણુ કરીને અને વિવક્ષિત ધર્માંને મુખ્ય ક્રરીને વસ્તુ પ્રતિપાદક વકતાના જે અભિપ્રાય હોય છે તે નયપ્રમાણુ છે. આ નયરૂપ પ્રમાણુનું નામ નયપ્રમાણ છે. આની પ્રરૂપણા પ્રસ્થક દૃષ્ટાંતથી, વસતિ દૃષ્ટાંતથી અને પ્રદેશ દૃષ્ટાન્તથી કરવામાં આવી છે, એથી નયના ત્રણ પ્રકાર કહેવામાં આવ્યા छे. (से किं तं पत्यगदितेणं) हे महन्त ! પ્રસ્થક દૃષ્ટાન્તને લઈને જે તયપ્રમાશુની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, તે કઇ રીતે કરવામાં આવી છે? उत्तर - ( पत्थगदितेणं) प्रस्थउना - पाली दृष्टान्तना आधारे के नयप्रभाणुनी प्र३षणा ४२वाभां भावी छे, ते मा प्रभा छे. ( से जहानामए केई पुरिसे परसुं गहाय अडवी समहुत्तो गच्छेज्जा) प्रेम । पुरुष परशु (मुहार) सहने भगस त२३ ४४ रह्यो हते. (तं पाखित्ता) तेने ते त२३ तो लेने (केई वएज्जा) For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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