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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २०७ असुरकुमारादीनामायुःस्थितिनिरूपणम् ३०५ हूर्तम् । पर्याप्तकबादरपृथिवीकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वाविंशति वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतौनानि । एवं शेषकायिकानामपि पृच्छावचनं भणितव्यम् । अप्कायिकानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सप्तवर्ष सहमुहुत्त उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्त) अपर्याप्तक जो बादर पृथिवीकायिक जीव है उनकी स्थिति जघन्य से और उत्कृष्ट से दोनों ही प्रकार से अंतर्मुहूर्त की है (पज्जत्तगयादरपुढवीकाइयाणं पुच्छा-गोयमा ! जहगणेणं अंतोमुदत्त उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतो मुहत्तणाई) जो पर्याप्तक बादर पृथिवीकायिक जीव हैं, उनकी स्थिति के विषय के प्रश्न का उत्तर-हे गौतम ! इस प्रकार से है कि-इन जीवों की स्थिति जघन्य से अंतर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त कम २२, हजार वर्ष की है। (एवं सेसकाइयाणं वि पुच्छा वयणं भाणियव्यं) इसी प्रकार से अवशिष्टकायिक जीवों के विषय में भी प्रश्न करना चाहिये-तात्पर्य कहने का यह है कि जिस प्रकार पृथिवीकायिक जीवों के विषय में प्रश्न किया गया है उसी प्रकार से हे भदन्त ! अपकायिक आदि जीवों की स्थिति कितने काल की है-१ इस प्रकार का प्रश्न उद्भावित कर लेना -और जो कुछ आगे अप कहाँ जा रहा है, उसे उत्तर पक्ष के रूप में लगाते जाना चाहिये-(आउकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसे गं सत्तवाससहस्साई) अप्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य से उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) अपयश २ मा१२ पृथिवीयि ७ तेमनी स्थिति धन्यथी मने टथी भन्ने प्रा२नी मत इतनी छ. (पज्जत्तग बादरपुढवीकाइयाण पुच्छा-गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेण' बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई) २ मा पृथिवीयि । छ, તેમની સ્થિતિના સંબંધમાં જે પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યો છે તેને જવાબ આ પ્રમાણે છે. કે હે ગૌતમ! આ છની સ્થિતિ જઘન્યથી અંતર્મુહર્તાની છે भने ४थी मत इत्त भ २२ १२ १५ २८क्षी छ. (एवं सेसकाइयाण' वि पुच्छावयण भाणियव्व) मा प्रभार अपशिष्टय: वाना સંબંધમાં પ્રશ્ન કરવામાં આવે છે, તેમજ હે ભદંત ! અપૂકાયિક વગેરે જીની સ્થિતિ કેટલા કાલની છે? આ જાતને પ્રશ્ન ઉભાવિત કરી લે અને જે કંઈ હવે પછી કહેવામાં આવે છે તેને ઉત્તરના રૂપમાં માની લેવું नसे. (आउकाइयाण जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण सत्तवाससहस्साई) અપ્રકાયિક ની જઘન્યથી સ્થિતિ અંતમુહૂર્તાની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ૭ अ० ३९ For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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