SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 827
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ अनुयोगद्वारसूत्रे भवति तत्र 'अविघुष्ट' नामा गुणो बोध्यः॥५॥ मधुरम्-मधुमत्त कोकिलकल काकलीवत् यत्र गाने गायकस्य मधुरः स्वरो भवति तत्र 'मधुरम्वर'-नामा गुणः॥६॥ समम्-तालवंशस्वरादिसमनुगतो यत्र स्वरो भवति, तत्र 'सम'-नामको गुणः॥७॥ मुललितम् -स्वरघोलनाप्रकारेण शुद्धातिशयेन शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखो. त्पादनाद वा, ललतीव यत् तत् सुललितम्-सुकुमारमित्यर्थः, अयं गेयस्याष्टमो गुणः॥८॥ एते अष्ट गुणा गीतस्य भवन्ति । एतद्विरहितं गीतं तु गोतमेव न भवति । तत्तु गीताभासं विज्ञेयम् ॥ इतोऽन्येऽपि गीतगुणाः सन्ति, तान् प्रदर्शयितुमाह-'उरकंठ' इत्यादि । च-पुनः उरकण्ठशिरःप्रशस्तम्-उरकण्ठसिरसा द्वन्द्वः, ततः प्रशस्तेन सह तृतीयातत्पुरुषः। एवं च-उरः प्रशस्तं कण्ठपशस्तं शिरः प्रशस्तमिति शुद्धमिति पदत्रयं लभ्यते । तत्र-उरसि यदा विशालः स्वरो भवति, जो गान स्वर विहीन होता है, वह 'विघुष्ट' गान कहलाता है। जिस गान में विघुष्ट नहीं होता वहां, 'अविघुष्ट' नाम का यह गुण होता है। वसन्त में मत्त कोकिलाकी कलकाकली के जैसा जिस गान में गायकका स्वर मधुर होता है, उस गान में 'मधुर' स्वर नाम का गुण होता है। जिस गान में ताल, वंश-स्वर आदि से समनुगत स्वर होता है उस गान में 'सम' नामका गुण होता है । स्वर घोलना प्रकार से शुद्धाति. शय से अथवा शब्दस्पर्शन से जो श्रोत्रेन्द्रिय को सुखोत्पादक होता है और इसी कारण जो विशेष प्रिय लगता है वह सुललित है-यह गान काअष्टमगुण है। इस प्रकार ये गीत के ८ गुण हैं। इन गुणों से रहित हुआ गीत (गान) गीत ही नहीं कहलाता है। वह तो गीताभास है। इन गुणों से अन्य और भी गीत के गुण हैं, जो इस प्रकार से हैं (उरकंठसिरपसत्थं) उर प्रशस्त कंठप्रशस्त और शिरःप्रशस्त, गान का હોય ત્યાં “અવિઘુષ્ટ' નામક ગુણ કહેવાય છે. વસન્તમાં મત્ત કેયલની કલકાકલીની જેમ જે ગીતમાં ગાયકને સ્વર મધુર હોય છે, તે ગીતમાં મધુર સ્વર નામે ગુણ હોય છે જે ગીતમાં તાલ, વંશ, સ્વર વગેરેથી સમગત સ્વર હોય છે તે ગીતમાં “સમ” નામક ગુણ હોય છે. સ્વરલના પ્રકારથી, શ્રદ્ધાતિશયથી અથવા શબ્દ સ્પર્શનથી જે શ્રોત્રેન્દ્રિયને સુખ આપે છે અને એથી જે વિશેષ પ્રિય લાગે છે તે સુલલિત છે. આ ગીતને આઠમે ગુણ છે આ પ્રમાણે આ ગીતના આઠ ગુણે છે. આ ગુણેથી હીન ગીત ગીત કહી શકાય જ નહીં તે તે ગીતાભાસ છે. આ ગુણની સાથે સાથે બીજા પણ टमा तना गुथे। छ त म प्रमाणे छे-(उरकंठसिरपनत्थं) 6:प्रशस्त, કંઠપ્રશસ્ત અને શિરપ્રશસ્ત ગીતનો વિશાળ સ્વર જ્યારે વક્ષસ્થળમાં પૂરિત For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy