SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनुयोगद्वारसूत्रे य पवत्तइ ? अंगपक्ट्रिस्स वि उद्देसो जाव पवत्तइ, अणंगपक्ट्रिस्स वि उद्देसो जाव पत्तवइ । इमं पुण पटवणं पडुच्च अणंगपविटुस्स अणुओगो ॥ ३ ॥ छाया-यदि श्रुतज्ञानस्य उद्देशः, समुद्देशः, अनुज्ञा, अनुयोगश्च प्रवर्तते . किम् अङ्गप्रविष्टस्य उद्देशः, समुद्देशः, अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ? किम् अङ्गबाह्यस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा, अनुयोगश्च प्रवर्तते ? अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते, अनङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते । इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः ॥सू० ३॥ टीका-'जइ सुयनाणस्स' इत्यादि--- यदि श्रतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते तर्हि स .. उद्देशादिः किम् अङ्गप्रविष्टस्य-द्वादशाङ्गान्तर्गतस्याचाराङ्गादेः प्रवर्तते, किं वा अनङ्गप्रविष्टस्य-अङ्गबाह्यस्य दशवैकालिकादेः प्रवर्तते ? इति शिष्यप्रश्नः। गुरुरुत्तरयति-'अंगप्पविद्वरस वि' इत्यादिना। हे शिष्य ! अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो _ "जइ सुयनाणस्स" इत्यादि . · शब्दार्थ-(जइ) यदि (सुयनाणस्स) श्रुतज्ञान में (उद्देसो) उद्देश (समुद्देसो) समुद्देश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो) अनुयोग इन की (पत्तइ) प्रवृत्ति होती है तो (किं) क्या (अंगपविठ्ठग्स) जो अंगप्रविष्ट श्रृंत है उसमें (उद्देसा) इन उद्देश, (समुद्देसा) समुद्देश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो) अनुयोग की (पवत्तइ) प्रवृत्ति होती है ? क्या अथवा जो (अंगबाहिरग्स) अंग बाह्य श्रुतज्ञान है उसमें (उद्देसो समुहेसा अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ) उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग इनकी प्रवृत्ति होती है क्या ? उनर-(अंगपविट्ठस्स) अंग प्रविष्ट जो आचाराङ्गादि श्रुत है उनमें (वि) भी (उद्देसो य जाव "जइ सुयनाणस्स" त्या थार्थ- (जइ) ने (सुयनाणरस) श्रुतज्ञानभा (उद्देसो) ७देश, (समुद्देसो) समुथ, (अणुण्णा) अनुज्ञा (य) भने (अणुभोगो पवतई) मनुयागनी प्रवृत्ति (सहलाय) याय छ, त। (किं अंगपचिट्ठस्त) शुरे भविष्ट श्रुत छ तभा (उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा य अणुओंगो पवत्तइ) मे श, सभुश, मनुशा भने अनुयोगनी प्रवृत्ति थाय छ ? २ (अंगबाहिरस्स) मा श्रुतज्ञान छ तेभा (उद्देसो, समुद्देसो अणुण्णा अनुओगो य पवत्तइ) देश, सभुश, अनुज्ञा અને અનુગની પ્રવૃતિ થાય છે? Gत२-(अंगपविठ्ठरस वि उसो जाव पवत्तइ) माया मारे । For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy