SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७३ अनुयोगद्वासन भाविता अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन्त उभयतः कालम् आवश्कं कुर्वन्ति । तदेतद् लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् । तदेतन्नो आगमता भावादश्यकम् तदेतद् भावाव... क्याम् ॥सू० २८॥ टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं' अथ किं तद् लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् ? इति । उत्तरमाह-'लागुत्तरिय' भावावस्सयं' इत्यादि। लोकोत्तरिकं भावावश्यकमेवं विज्ञेयम्, यस्खलु इमे श्नमणा ग श्रमण्यो वा श्राम्गन्तिमुक्त्यर्थ तपन्तीति-श्रमणाः स्त्रियश्चेत् श्रमण्यः-साधवा वा साध्व्यावेत्यर्थः श्रावका वा श्राविका वा, शृण्वन्ति-साधुसमीपे जिनप्रणीता सामाचारीमिति श्रारका श्रमणोपोसकाः, स्त्रियश्चेत् श्राविका श्रमणापासिकाः, वा शब्दाः समुच्चयार्थाः,. तञ्चित्ताः तस्मिन्नेव आवश्यके चित्त सामान्योपयोगरूप येषां ते तथा, आवश्यक सामान्योपयोगवन्तः, तथा तन्मनसः तस्मिन्नेव मनो विशेषा शुभपरिणामरूप लेश्यासंपन्न होकर (तदज्झवसिए) क्रिया संपादन विषयक अध्यघसाययुक्त होकर (तत्ति ज्झरसाणे) तीव्र आत्मपरिणाम विशिष्ट होकर (तट्टोवउत्त) तदर्थ में उपयुक्त होकर (तदप्पियकरणे) तदर्पितकरणबाळे होकर) (तम्भावणाभाविए) तद्भावना से भावित होकर (अण्णत्थकत्थइ मणं अकरेमाणे) अन्य और कहीं पर भी मनको नहीं लगाकर (उभओ कोलं) दोनों समय (आवस्सयं करेंति) आवश्यक करते हैं (से त लोगुत्तरिय भावासयं) वह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। मुक्ति प्राप्ति के निमित्त जो तप तपते हैं उन का नाम "श्राम्यन्तीति श्रमणाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार श्रमण हैं जो साधुओं के समीप जिन प्रणीत सामाचारी का श्रवण करते हैं उनका नाम श्रावक है। ये श्रमणोपासक होते हैं। आवश्यक क्रिया में जिनका सामान्यरूप से उपयोग है, वे श्रमण आदिजन यहाँ "तच्चित्ते" पद के वाच्यार्थ हुए भनवीन (तल्लेस) शुभ परिणाम३५ वेश्या स५.नयन (तदज्झसिए या पान विषय अध्यवसायथी युति यधने, (तत्तिवज्झवसाणे) तीन मारमा परिणाम युरत थईन, (तदट्ठोवउत्ते) माश्य अर्थमा उपयुत (७५या ३५ पभियुत) ने (तदप्पियकरणे) तपित ४२युत धन (तब्भावणा भाविए) ते प्रा२नी भावनाथी सावित (५-न) धन (अण्णत्थकत्थइ मण अक रेमाणे भने मन्य ७ ५५ स्तुभां मनन सभा हीथा विना, (उभओ कालं) भन्ने समये (आवस्सयं करेंति) 2 मावश्य४ (प्रतिभा माहि अवश्य ४२वा योग्य मिया) ४रे छ, तर सत्तर लावावश्य: ४३ छ. . હવે આ સૂત્રમાં શ્રમણ આદિ પદેને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે..., .."श्राम्यन्ति इति श्रमणाः' या व्युत्पत्ति प्रमाणे “ भुति भास ४२१॥ નિમિત્ત જેઓ તપ તપે છે તેમને શ્રમણ કહે છે જેઓ સાધુઓની સમીપે જિનપ્રણીત સામાચારીનું શ્રવણ કરે છે તેમને શ્રાવક કહે છે. તેઓ શ્રમણોપાસક હોય છે. આવથફ ક્રિયામાં સામાન્ય રૂપે ઉપગ યુકત હોય એવા શ્રમણ આદિને અહીં "तच्चित्ते" मा पहना वा-या ३२ प्रयुत थयेा समा . रेमो विशेष ३२ For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy