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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वारस्त्रे आगमत एक द्रव्यावश्यकम्, पृथक्तवं नेच्छति । त्रयणां शब्दनयानां ज्ञायक अनुपयुक्तः अवस्तु, कस्मात् ? यदि ज्ञायकोऽनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो ज्ञायको न भवति तरमाद् नास्ति आग्मतो द्रव्यावश्यक म् । तदेतदागमतो त्यावश्रकम् ॥ ०१५॥ टीका-'नेगमस्सणं' इत्यादि जिनशासने हि सर्वमपि सूत्रमर्थश्च न विचार्यते । तत्र नयाः सप्तविधाः। नय की दृष्टी से किया जाता है वह सब एक द्रव्यावश्यक है। क्योंकि संग्रहनय भिन्न २ प्रकार की वस्तुओं को तथा उनेक व्यक्तियों को किसी भी सामान्य तत्त्व के आधार पर एक रूप में संकलित करता है। (उज्जु सुयरस एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दावा सयं पुहुत्तं नेच्छइ) ऋजु सूत्र नयी दृष्टी में एक अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा लेकर एक द्रव्यावश्यक है। र ह नय भेदवाद को नही चाहता है। (तिष्णं सद्दनपाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भइ, जइ अणुवउत्ते, जागए न भवइ) तीन शब्दनयों की दृष्टि में जो ज्ञायक होता है वह यदि तो . अनुपयुक्त है, तो यह अवन्तुस्वरूप है । क्यों कि ज्ञायक अनुपयुक्त नहीं होता । यदि वह अनुपयुक्त है तो वह ज्ञायक नहीं है । इसलिये आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक जो कहा गया है वह नहीं है। (से तं आगमभो दवावस्सयं) इस तरह आगम को आश्रित करके प्रक्रान्त द्रव्यावश्यक છે, તથા અનેક અનુપયુકત આત્માઓ અનેક દ્રવ્યાવશ્યક છે.” આ પ્રકારનું જે જે કથન નેગમ નય અને વ્યવહાર નયની અપેએ કરવામાં આવ્યું છે, તેને બદલે અહીં બધાને એક દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવા જોઈએ, કારણ કે સંગ્રહનય જુદા જુદા પ્રકારની વસ્તુઓને તથા અનેક વ્યકિતઓને કેઈ પણ સામાન્ય તત્વને આધાર साधने मे ३५मा सात रे छे. (उज्जुसुयस्स एगो अणु व उत्तो आगमओ एगं दव्वावर सयं पृहुत्त नेच्छइ) *१२ नयनी हाये ये मनुफ्युत मारमा मारामना सापेक्षा द्रव्या५४ छ. 24 नय मेहमापने या तो नथी. (तिण्णं सदनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउते, न भवइ, जइ अणुवउत्ते, जाणए न भवइ) त्रय श६ नयानी दृष्टि से भानपामा मार છે કે જે જ્ઞાયક હોય છે તે જે અનુપયુકત હોય તે તે વસ્તુ સ્વરૂપ છે, કારણ કે જ્ઞાયક અનુપયુકત સંભવી શકે જ નહીં જે તે અનુપયુક્ત હોય, તો તે જ્ઞાયક જ હોઈ શકે નહીં. તે કારણે આગમને આશ્રય લઈને જે દ્રવ્યાયશ્યક બતાવવામાં मावेस , तेन। सहमा १ नथी. (से तं आगमओ दम्यावरसर्थ) । प्रानु આગમને આશ્રિત કરીને પ્રક્રાન્ત (પ્રસ્તુત વિષયરૂ૫) વ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ છે. For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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