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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवयण अणुसारेणं, जहा य लिहियाइ संति तह चेव । गीयत्था अणुगिण्हह, काऊण पसायमेयाई ॥ २६७॥ जइ जाणह अविरुद्धं, ता सुपमाणं करेह कारेह । इत्थ वि किंचि विरुद्धे, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ २६८ ॥ अण्णं च किंचि वि पडिसेवंतो, जिणुत्तमुस्सग्गमेव मण्णंतो। नियकारणं कहतो, विराहगो होइ नहु साहू ॥ २६९ ॥ आउत्तो चत्तारि वि, भासाउ तहय भासमाणो य । आराहओ य भणिओ, पण्णवणाए उवंगम्मि ॥ २७० ॥ एयाए वण्णियाए, दसासुठाणंग - पमुह-सुत्तेसु । अववायपया भणिया, जहट्ठिउ तत्थ उवएसो ॥ २७१ ॥ जम्हा नेव पवत्तइ एएसु विही जिणेहिं निद्दिट्ठो । अकरंतो एयाई, विराहगो नो मुणी होइ ॥ २७२ ॥ नइउत्तरणुवएसो, जहट्ठिउ तविहीइ विहिवाओ। उत्तारो सावज्जो, उत्तर-विहीइ निरवज्जो जइ नइसलिले न कुणइ, एगं पायं तहा वि नहु दोसो। अह जइ थलम्मि न कुणइ, पविसंतो ता महादोसो ॥२७४ ।। एवं वियारिऊणं, गीयत्था जं कहंति तं सच्चं । इत्थं जाणामि अहं, जहट्ठिउ एस उवएसो ॥ २७५ ॥ तुल्लाए किरियाए, छउमत्थो केवली य नइ-सलिलं । जइ उत्तरंति तहविहु, उस्सुत्तं तह अहासुतं ॥ २७६ ॥ रीयंति इमं भणियं, भगवइसुत्तम्मि बहुसु ठाणेसु । सत्तमदसमट्ठारस-सएसु अत्थे अ णाणाए || २७७ ॥ जइ विहि जिण उवएसो, ता इत्तियमंतरं कहं एयं । एएण कारणेणं, जिणोवएसो य निरवज्जो ।। २७८ ॥ ॥ २७३॥ ૧૪ For Private And Personal Use Only
SR No.020963
Book TitleShastra Sandeshmala Part 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2009
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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