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________________ २४ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [48:१-४८रजः खलु पुरातनं गलति नो नवं ढौकते ततोऽतिनिकटं भवेदमृतधाम दुःखोज्झितम् ॥ ४८ ॥ 49 ) प्रबोधो नीरन्ध्र प्रवहणममन्दं पृथुतपः सुवायुः प्राप्तो गुरुगणसहायाः प्रणयिनः । कियन्मात्रस्तेषां भवजलधिरेपो ऽस्य च परः कियहरे पारः स्फुरति महतामुद्यमयुताम् ॥ ४९ ॥ 50 ) अभ्यस्यतान्तरदृशं किमु लोकभक्त्या मोहं कृशीकुरुत किं वपुषा कृशेन । एतद्वयं यदि न किं बहुभिर्नियोगैः क्लेशैश्च किं किमपरैः प्रचुरैस्तपोभिः ॥ ५० ॥ 51) जुगुप्सते संसृतिमत्र मायया तितिक्षते प्राप्तपरीषहानपि । न चेन्मुनिईष्टकषायनिग्रहाच्चिकित्सति स्वान्तमघप्रशान्तये ॥ ५१ ॥ स्खलु पुरातनं रजः पापं गलति । नवं पापं न ढौकते न आगच्छति । ततः कारणात् अमृतधाम मोक्षपदम् । अतिनिकटं भवेत् । किंलक्षणं मोक्षम् । दुःखोज्झितं दुःखरहितम् ॥ ४८ ॥ यैः यतिभिः । प्रबोधः प्रवहणं प्राप्त ज्ञानप्रवहणं' प्राप्तम् । किंलक्षणं प्रवहणम् । नीरन्ध्र छिद्ररहितम् । पुनः किंलक्षणं प्रोहणम् । अमन्दं वेगयुक्तम् । यैः यतिभिः । पृथुतपः विस्तीर्ण तपः सुवायैः प्राप्तः । यैः यतिभिः । गुरुगणसहायाः प्रणयिनः स्नेहकारिणः । तेषां मुनीनाम् । एषः भवजलधिः संसारसमुद्रः कियन्मात्रः। उद्यमयुता उद्यमयुक्तानां मुनीनाम् । अस्य संसारसमुद्रस्य पारः कियहूरे स्फुरति । परः प्रकृष्टः ॥ ४९ ॥ अन्तर्दृशं ज्ञाननेत्रम् । अभ्यस्यताम् । लोकभक्त्या किमु । भो मुनयः मोहं कृशीकुरुत । वपुषा कृशेन किम् । यदि चेत् । एतद्द्वयं न अन्तर्दृष्टिर्मोहं कृशं न । तदा बहुभिः नियोगैः व्रतादिकरणः किम् । च पुनः । क्लेशः कायक्लेशैः किम् । अपरैः प्रचुरैः तपोभिः किम् । न किमपि ॥ ५० ॥ अत्र संसारे । चेत् यदि । मुनिः । अघप्रशान्तये पापप्रशान्तये । दुष्टकषायकारणभूत संवर होता है, जिससे कि नियमतः पूर्व कर्मकी निर्जरा होती है और नवीन कर्मका आगम भी नहीं होता । अत एव उक्त मुनिके लिये दुःखोंसे रहित एवं उत्तम सुखका स्थानभूत जो मोक्षपद है वह अत्यन्त निकट हो जाता है ॥ ४८ ॥ जिन मुनियोंने सम्यग्ज्ञानरूपी छिद्ररहित एवं शीघ्रगामी जहाज प्राप्त करलिया है, जिन्होंने विपुल तपस्वरूप उत्तम वायुको भी प्राप्त कर लिया है, तथा स्नेही गुरुजन जिनके सहायक हैं; ऐसे उद्यमशील उन महामुनियोंके लिये यह संसार-समुद्र कितने प्रमाण हैं ? अर्थात् वह उन्हें क्षुद्र ही प्रतीत होता है । तथा उनके लिये इसका दूसरा पार कितने दूर है ? अर्थात् कुछ भी दूर नहीं है ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार अनुभवी चालकोंसे संचालित, निश्छिद्र, शीघ्रगामी एवं अनुकूल वायुसे संयुक्त जहाजसे गमन करनेवाले मनुष्योंके लिये अत्यन्त गम्भीर एवं अपार भी समुद्र क्षुद्र ही प्रतीत होता है उसी प्रकार मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील जिन महामुनियोंने निर्दोष उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानके साथ विपुल तपको भी प्राप्त करलिया है तथा स्नेही गुरुजन जिनके मार्गदर्शक हैं उनके लिये इस संसार-समुद्रसे पार होना कुछ भी कठिन नहीं है ॥ ४९ ॥ हे मुनिजन ! सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्तर नेत्रका अभ्यास कीजिये, आपको लोकभक्तिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है । इसके अतिरिक्त आप मोहको कृश करें, केवल शरीरके कृश करनेसे कुछ भी लाभ नहीं है । कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके विना बहुत-से यम-नियमोंसे, कायक्लेशोंसे और दूसरे प्रचुर तपोंसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है ॥ ५० ॥ यदि मुनि पापकी शान्तिके लिये दुष्ट कषायोंका निग्रह करके अपने मनका उपचार नहीं करता है, अर्थात् उसे निर्मल नहीं करता है, तो यह १भश ज्ञानप्रोहणं। २भश पृथुतपः सुवायुः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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