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________________ सम्पादकीय यह जो ग्रंथ यहां समीक्षात्मक रीतिसे सम्पादित, पूर्णतः अनुवादित तथा सर्वाङ्ग दृष्टिसे समालोचित होकर प्रस्तुत किया जा रहा है, वह लगभग एक सहस्र वर्षोंसे लगातार सुप्रसिद्ध रहा पाया जाता है । इसके एक प्रकरण ( एकत्वसप्तति ) पर कर्नाटक प्रदेशके एक नरेशके सम्बोधनार्थ लगभग वि. सं. ११९३ में कन्नड भाषामें टीका लिखी गई थी । तत्पश्चात् किसी समय वह संस्कृत टीका रची गई जो इस ग्रंथके साथ प्रकाशित है, तथा आजसे कोई एकशती पूर्व राजस्थानमें हिन्दी वचनिका लिखी गई । अनेक ग्रंथकर्ताओं व टीकाकारोंने १२वीं शतीसे लगाकर उसका उल्लेख किया है व उसके अवतरण दिये हैं । देशके उत्तर से दक्षिण तक इस ग्रंथकी उक्त प्रकार प्रसिद्धि व लोक-प्रियताका कारण उसका विषय व प्रतिपादन शैली है । ग्रंथ अपने वर्तमान रूपमें २६ स्वतंत्र प्रकारणोंका संग्रह है जिनका विषय जैन धार्मिक दृष्टिसे मार्मिक और रुचिकर है । विषयकी व्याख्यानशैली सरल और विशद है । केवल दो स्तुतियां ( १३-१४ वें ) प्राकृत भाषामें रची गई हैं; शेष समस्त २४ प्रकरण संस्कृत पद्यात्मक हैं । रचनाकी दृष्टिसे ग्रंथ तीन स्थितियोंमेंसे निकला है | आदितः ग्रंथकारने अनेक छोटे छोटे स्वतंत्र प्रकरण लिखे जो अपने अपने गुणोंके अनुसार लोक प्रचलित हुए होंगे । इनमेंसे एक प्रकरण अर्थात् एकत्व-सप्ततिने आगामी ग्रंथकारोंका ध्यान विशेषरूपसे आकर्षित किया । तत्पश्चात् कभी किसी संग्रहकारने उक्त प्रकरणोंसे २५ को एकत्र कर ग्रंथकारके नाम व अधिकारोंकी संख्यानुसार उसका नाम पद्मनन्दि- पञ्चविंशति रखा । ग्रंथकी तीसरी स्थिति तब उत्पन्न हुई जब किसी अन्य संग्राहकने उनमें एक और प्रकरण जोड़कर उनकी संख्या २६ कर दी, तथापि नाम पञ्चविंशति अपरिवर्तित रखा । यह जोड़ा हुआ प्रकरण संभवतः अन्तिम और उन्हीं पद्मनन्दिकृत है, यद्यपि यह बात सर्वथा निश्चित रूपसे नहीं कही जा सकती । कुछ प्रकरणों के अन्त या मध्यमें भी कभी कुछ पद्य समाविष्ट किये गये प्रतीत होते हैं और इसी कारण प्रकरणोंके सप्तति, पञ्चाशत् व अष्टक नाम उनमें उपलभ्य पद्योंकी संख्याके अनुरूप नहीं पाये जाते । वर्तमान में ग्रंथके २६ प्रकारणोंमें पद्योंकी संख्या ९३९ है । इनमें सबसे बड़ा प्रकरण १९८ पद्योंका व छोटेसे छोटे चार प्रकरण ८-८ पद्योंके हैं । इस ग्रंथके कर्ताके प्रदेश व कालके सम्बन्धकी कोई सूचना ग्रंथ में नहीं पाई जाती । किन्तु उसके एक प्रकरण आर्थात् एकत्व - सप्ततिपर जो कन्नड टीका पाई जाती है, तथा जो कुछ अन्य स्फुट प्रमाण अन्यत्र उपलब्ध होते हैं उनसे प्रायः सिद्ध होता है कि इस ग्रंथकी रचना कर्नाटक प्रदेशमें संभवतः कोल्हापुर या उसके समीप सं. १०७३ और ११९३ के बीच हुई थी । यदि यह अनुमान ठीक हो कि मूल ग्रन्थ और कन्नड टीकाके कर्ता एक ही हैं, तो ग्रंथका रचनाकाल उक्त अन्तिम सीमाके लगभग माना जा सकता है ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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