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________________ प्रस्तावना भरण-पोषण आदिके लिये जो अनेक प्रकारके आरम्भ द्वारा धनका उपार्जन करता है, उसमें उसके हिंसा आदिके कारण अनेक प्रकारके पापका संचय होता है । इस पापको नष्ट करनेका यदि कोई साधन उसके पास है तो वह दान ही है । यह दान श्रावकके छह आवश्यकों (६,७) में प्रमुख है। जिस प्रकार पानी वस्त्रादिमें लगे हुए रुधिरको धोकर उसे स्वच्छ कर देता है उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि व वाणिज्य आदिसे उत्पन्न पाप-मलको धोकर उसे निष्पाप कर देता है (५-७,१३ )। इस दानके निमित्तसे दाताके जो पुण्य कर्मका बन्ध होता है उसके प्रभावसे उसे भविष्यमें भी उससे कई गुणी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । उदाहरण स्वरूप यदि छोटे-से भी वटके बीजको योग्य भूमिमें बो दिया जाता है तो वह एक विशाल वृक्षके रूपमें परिणत होकर वैसे असंख्यात बीजोंको तो देता ही है, साथ ही वह उस महती छायाको भी देता है जिसके आश्रित होकर सैकड़ों मनुष्य शान्ति प्राप्त करते हैं (८,१४,३८)। रत्नत्रयके साधक मुमुक्षु जनोंको आहारादि प्रदान करनेवाला सद्गृहस्थ न केवल साधुको ही उन्नत पदमें स्थित करता है, बल्कि वह स्वयं भी उसके साथ उन्नत पदको प्राप्त होता है। उदाहरणके लिये राज जब किसी ऊंचे भवनको बनाता है तब वह उस भवनके साथ साथ स्वयं भी क्रमशः ऊंचे स्थानको प्राप्त करता जाता है (९)। जो गृहस्थ सम्पन्न होता हुआ भी पात्रदान नहीं करता, उसे वस्तुतः धनवान् नहीं समझना चाहिये, वह तो किसी अन्यके द्वारा धनके रक्षणार्थ नियुक्त किये गये सेवकके समान ही है। कोषाध्यक्ष सब धनकी सम्हाल और आय-व्यायका पूरा पूरा हिसाब रखता है, परन्तु वह स्वयं उसमेंसे एक पैसेका भी उपभोग नहीं कर सकता (३६)। पात्रदानादिके निमित्तसे जिस गृहस्थकी लोकमें कीर्ति नहीं फैलती उसका जन्म लेना और न लेना बराबर है । वह धनसे सम्पन्न होता हुआ भी रंकके समान है (४०)। कृपण मनुष्य यह तो सोचता है कि प्रथम तो मुझे धनका कुछ संचय करना है, भवनका निर्माण कराना है, तथा पुत्रका विवाह भी करना है, तत्पश्चात् दान करूंगा आदि; परन्तु वह यह नहीं सोचता कि मैं चिरकाल तक स्थित रहनेवाला नहीं हूं; न जाने कब मृत्यु आकर इस जीवनलीलाको समाप्त कर दे। जिसका धन न तो भोगनेमें ही आता है और न पात्रदानमें भी लगता है उसकी अपेक्षा तो वह कौवा ही अच्छा है जो कांव कांव करता हुआ अन्य कौवोंको बुलाकर ही बलिको खाता है (४५-४६) । अन्तमें उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र, कुपात्र और अपात्रके स्वरूपको तथा उनके लिये दिये जानेवाले दानके फलको भी बतलाकर (४८-४९) इस प्रकरणको समाप्त किया गया है । ३. अनित्यपञ्चाशत्- इस अधिकारमें ५५ श्लोक हैं। यहां शरीर, स्त्री, पुत्र एवं धन आदिकी स्वाभाविक अस्थिरताको दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषादके परित्यागके लिये प्रेरणा की गई है। आयुकर्मके अनुसार जिसका जिस समय प्राणान्त होना है वह उसी समय होगा। इसके लिये धर्म न करके शोक करना ऐसा है जैसे सर्पके चले जानेपर उसकी लकीरको पीटते रहना (१०)। जिस प्रकार रात्रिके होनेपर पक्षी इधर उधरसे आकर किसी एक वृक्षके ऊपर निवास करते १. गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम् । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥ र. धा. ११४. २ क्षितिगतमिव क्टबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले । फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥ र. श्रा. ११६. 5. अकीर्त्या तप्यते चेतश्चतस्तापोऽशुभास्रवः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥ सा. ध. २, ८५,
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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