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________________ पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिः विमुख होकर - जिनपूजन और पात्रदानादिसे रहित होकर - केवल धनके अर्जन और विषयोंके भोगनेमें ही मस्त रहते हैं उनके गृहस्थजीवनको एक प्रकारका बन्धन ही समझना चाहिये (१३ ) । ४० गृहिधर्ममें श्रावकके दर्शन व व्रत आदिके भेदसे ग्यारह स्थान ( प्रतिमायें ) निर्दिष्ट किये गये हैं । इनके पूर्वमें सात व्यसनोंका परित्याग अनिवार्य है, क्योंकि, उसके विना व्रत आदि प्रतिष्ठित नहीं रह सकते । व्यसन वे हैं जो पुरुषोंको कल्याणके मार्गसे भ्रष्ट करके उन्हें अकल्याण में प्रवृत्त किया करते हैं। यहां ( १६-३१ ) उन द्यूतादि व्यसनोंका पृथक् पृथक् स्वरूप बतलाकर उनमें रत रहने से जिन युधिष्ठिर आदिको कष्ट भोगना पड़ा है उनका उदाहरणके रूपमें नामोल्लेख भी किया गया है । I हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन पापोंका परित्याग जहां श्रावक एक देशरूपसे करता है, वहां मुनि उनका परित्याग पूर्ण रूपसे किया करते हैं । इसीलिये गृहस्थके धर्मको देशचरित्र और मुनिके धर्मको सकलचारित्र कहा जाता है । इस सकल चारित्रको धारण करनेवाले मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयके साधनमें तत्पर होकर मूलगुण, उत्तरगुण, पांच आचार और दस धर्मोका परिपालन किया करते हैं । इसमें वे प्रमाद नहीं करते तथा जीवनके अन्तमें समाधि ( सल्लेखना ) को धारण करनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं ( ३८ ) । उनमें मूलगुणों के परिपालनकी प्रमुखता है । जो तपस्वी मूलगुणोंका परिपालन न करके उत्तरगुणों के परिपालनका प्रयत्न करता है उसका यह प्रयत्न उस मूर्खके समान बतलाया गया है जो अपने शिरके छेदने में उद्यत शत्रुसे अपने शिरोरक्षणका तो प्रयत्न नहीं करता, किन्तु अंगुलिके रक्षण मात्रमें संलग्न हो जाता है (४०) । वे मुनिके मूलगुण २८ हैं जो इस प्रकार हैं- पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांचों इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि छह आवश्यक, लोच, वस्त्रका परित्याग, स्नानका परित्याग, भूमिशयन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन और एकभक्त' ( एक वार भोजन ग्रहण ) । इन मूलगुणों से यहां ग्रन्थकार श्री मुनिपद्मनन्दीने अचेलकत्व ( वस्त्रत्याग ), लोच, स्थितिभोजन और समताका ही मुख्यतासे स्वरूप दिखलाया है । वे दिगम्बरत्वकी आवश्यकताको प्रगट करते हुए कहते हैं कि जब वस्त्र मैला हो जाता है तब उसे स्वच्छ करनेके लिये जलादिका आरम्भ करना पड़ता है, और जहां आरम्भ है वहां संयमकी रक्षा सम्भव नहीं है । दूसरे, जब वह जीर्ण-शीर्ण होकर फट जाता है तो मनमें व्याकुलता होती है तथा दूसरोंसे उसके लिये याचना करना पड़ती है । इससे आत्मगौरव नष्ट होकर दीनताका भाव उत्पन्न होता है । फिर यदि किसीने उसका अपहरण कर लिया तो क्रोध भड़क उठता है । इस प्रकार से वस्त्रको मुनिमार्गमें बाधक समझकर दिगम्बरत्वको स्वीकार करना ही योग्य है ( ४१ ) । कुछ मुनियोंकी भोगाकांक्षा को देखकर यहां यह कहा गया है कि जब साधुके लिये शय्या के हेतु घासको भी स्वीकार करना लज्जाजनक व निन्द्य माना जाता है, तब भला गृहस्थके योग्य रुपये-पैसे आदिको स्वीकार करना या १. जाग्रत्तीत्र कषाय कर्कशमनस्कारार्पितैर्दुष्कृतैश्चैतन्यं तिर्यत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्रेयसः । पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तद्व्रतः कुर्वीतापि रसादिसिद्धिपरतां तत्सोदरी दूरगाम् ॥ सा. ध. ३,१८. २. पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा | पंचेविंदियरोहा छप्पिय आवासया लोचो ॥ अचेलक मण्णाणं खिदिसयणम दंतघंसणं चेव । ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणं अट्ठवीसा दु ॥ मूला. १, २-३.
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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