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________________ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर उसका प्रभाव पद्मनन्दीकी इन कृतियोंमें कुछके ऊपर दिखता है । उदाहरणके रूपमें यहां ( ६, २९-३०) विनयकी आवश्यकताको बतलाते हुए उसके स्वरूप और फलका निर्देश इस प्रकार किया है विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु । दृष्टि-बोध-चरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ॥ दर्शन-ज्ञान-चरित्र-तपःप्रभृति सिद्धयति । विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते ॥ यह भाव अमितगति-श्रावकार (१३ ) में इस प्रकारसे व्यक्त किया गया है संघे चतुर्विधे भक्त्या रत्नत्रयराजिते । विधातव्यो यथायोग्यं विनयो नयकोविदः ॥ ४४ ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोज्ञानानि देहिना । अवाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥ ४८ ॥ अमितगति-श्रावकाचारके इन श्लोकोंका उपर्युक्त दोनों श्लोकोंमें न केवल भाव ही लिया गया है, बल्कि कुछ शब्द भी ले लिये गये हैं। अमितगति-श्रावकाचारके चतुर्थ परिच्छेदमें कुछ थोड़े-से विस्तारके साथ चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी, सांख्य, नैयायिक, असर्वज्ञतावादी मीमांसक एवं बौद्ध आदिके अभिप्रायको दिखलाकर उसका निराकरण किया गया है । इसका विचार अति संक्षेपमें मुनि पद्मनन्दीने भी प्रस्तुत ग्रन्थ (१,१३४-३९) में किया है। यद्यपि इन मत-मतान्तरोंका विचार अष्टसहस्री, श्लोकवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र आदि तर्कप्रधान ग्रन्थोंमें बहुत विस्तारके साथ किया गया है, फिर भी मुनि पद्मनन्दीने उक्त विषयपर अमितगतिकृत श्रावकाचारका ही विशेषरूपसे अनुसरण किया है। यथा आत्मा कायमितश्चिदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं संयुक्तः स्थिरता-विनाश-जननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥ प. १-१३४ ॥ कुर्यात् कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुङ्क्ते स्वयं तत्फलं सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा न चान्यादृशः । चिद्रूपः स्थिति-जन्म-भङ्गकलितः कर्मावृतः संसृतौ मुक्तौ ज्ञान-गेकमूर्तिरमलस्त्रैलोक्यचूडामणिः ॥ प. १-१३८॥ इसकी तुलना अ. श्रा. के निम्न श्लोकसे कीजिये निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकः । कर्ता भोक्ता गुणी सूक्ष्मो ज्ञाता दृष्टा तनुप्रमा ॥ ४-४६ ॥ इसके अन्तर्गत प्रायः सभी विशेषण उपर्युक्त प. पं. वि. के श्लोकोंमें उपस्थित हैं। आचार्य अमितगतिने इस श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्पराका तो उल्लेख किया है, पर ग्रन्थरचनाकालका निर्देश नहीं किया । फिर भी उन्होंने सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा और पञ्चसंग्रहकी समाप्तिका काल क्रमसे वि. सं. १०५०, १०७० और १०७३ निर्दिष्ट किया है। इससे उनका समय निश्चित है। अत एव उनके श्रावकाचारका उपयोग करनेवाले मुनि पद्मनन्दी वि. सं. की ११ वीं सदीके उत्तरार्धमें या उनके पश्चात् ही होना चाहिये, इसके पूर्व होनेकी सम्भावना नहीं है। १ जैसे-'विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः' और 'विधातव्यो यथायोग्यं आदि ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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