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________________ [ २६. ब्रह्मचर्याष्टकम् ] 931) भवविवर्धनमेव यतो भवेदधिकदुःखकरं चिरमङ्गिनाम् । इति निजाङ्गनयापि न तन्मतं मतिमतां सुरतं किमुतो ऽन्यथा ॥ १ ॥ 932) पशव एव रते रतमानसा इति बुधैः पशुकर्म तदुच्यते । अभिधया ननु सार्थकयानया पशुगतिः पुरतो ऽस्य फलं भवेत् ॥ २ ॥ 933) यदि भवेदबलासु रतिः शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा । किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति वा तपसे सततं बुधैः ॥ ३ ॥ तत्सुतम् । मतिमतां ज्ञानवताम् । निजाङ्गनयापि सह न मतं न कथितम् । इति हेतोः । उत अहो । अन्यथा पराङ्गनया किम् । किमपि न । यतः यस्मात्कारणात् । सुरतं भवविवर्धनम् एव संसार वर्धकम् एव भवेत् । अनिनां प्राणिनाम् । चिरं चिरकालम् । अधिकदुःखकरम् ॥ १ ॥ रते सुरते । रतमानसः प्रीतचित्ताः नराः । पशव एव । तत्सुरतं बुधैः पशुकर्म इति उच्यते कथ्यते 1 ननु इति वितर्के । अनया अभिधया सार्थकया नाम्ना । पुरतः अग्रतः । अस्य जीवस्य । पशुगतिः फलं भवेत् ॥ २ ॥ यदि चेत् । अबलासु रतिः शुभा भवेत् । निजासु स्वकीयस्त्रीषु रतिः श्रेष्ठा भवेत् तदा इह लोके सर्वथा सतां साधूनाम् । मुनिभिः सा रतिः मैथुन (स्त्रीसेवन) चूंकि प्राणियोंके संसारको बढ़ाकर उन्हें चिरकाल तक अधिक दुख देनेवाला है, इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्योंको जब अपनी स्त्रीके भी साथ वह मैथुनकर्म अभीष्ट नहीं है तब भला अन्य प्रकारसे अर्थात् परस्त्री आदिके साथ तो वह उन्हें अभीष्ट क्यों होगा ? अर्थात् उसकी तो बुद्धिमान् मनुष्य कभी इच्छा ही नहीं करते हैं ॥ १ ॥ इस मैथुनकर्ममें चूंकि पशुओंका ही मन अनुरक्त रहता है, इसीलिये विद्वान् मनुष्य उसको पशुकर्म इस सार्थक नामसे कहते हैं । तथा आगेके भवमें इसका फल भी पशुगति अर्थात् तिर्यंचगतिकी प्राप्ति होता है ॥ विशेषार्थ – अभिप्राय इसका यह है कि जो मनुष्य निरन्तर विषयासक्त रहते हैं वे पशुओंसे भी गये-बीते हैं, क्योंकि, पशुओंका तो प्रायः इसके लिये कुछ नियत ही समय रहता है; किन्तु ऐसे मनुष्योंका उसके लिये कोई भी समय नियत नहीं रहता- वे निरन्तर ही कामासक्त रहते हैं। इसका फल यह होता है कि आगामी भवमें उन्हें उस तिर्यंच पर्यायकी प्राप्ति ही होती है जहां प्रायः हिताहितका कुछ भी विवेक नहीं रहता । इसीलिये शास्त्रकारोंने परस्परके विरोधसे रहित ही धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों के सेवनका विधान किया है ॥ २ ॥ यदि लोकमें सज्जन पुरुषों को अपनी स्त्रियोंके विषयमें भी किया जानेवाला अनुराग श्रेष्ठ प्रतीत होता तो फिर विद्वान् पर्व ( अष्टमीव चतुर्दशी आदि ) के दिनों में अथवा तपके निमित्त उसका निरन्तर त्याग क्यों कराते ? अर्थात् नहीं कराते ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि परस्त्री आदिके साथ किया जानेवाला मैथुनकर्म तो सर्वथा निन्दनीय है ही, किन्तु स्वस्त्रीके साथ भी किया जानेवाला वह कर्म निन्दनीय ही है । हां, इतना अवश्य है कि वह परस्त्री आदिकी अपेक्षा कुछ कम निन्दनीय है । यही कारण है जो विवेकी गृहस्थ अष्टमी - चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्वस्त्रीसेवनका भी परित्याग किया करते हैं, तथा मुमुक्षु जन तो उसका सर्वथा ही त्याग करके तपको
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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