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________________ [२५. स्वानाष्टकम् ] 923) सन्माल्यादि यदीयसंनिधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद् विण्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं बीभत्सु यत्पूति च । आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुचिं सर्वाशुचीनामिदं संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात्कथं शुद्ध्यति ॥ १॥ 924) आत्मातीव शुचिः स्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन् परे कायश्चाशुचिरेव तेन शुचितामभ्येति नो जातुचित् । नृणाम् इदं वपुः शरीरम् । अपां जलानाम् । नानात्कथं शुद्ध्यति । यदीयसंनिधिवशात् यस्य शरीरस्य संनिधिवशात् निकटवशात् । सन्माल्यादि पुष्पमालादि अस्पृश्यताम् आश्रयेत् । च पुनः । यत् शरीरं विटे-विष्ठामूत्रादिभृतम् । पुनः रसादिघटितम् । पुनः बीभत्सु भयानकम् । पुनः पूति दुर्गन्धम् । शुचिम् आत्मानं मलिनं करोति इदं शरीरम् । पुनः किंलक्षणम् । सर्वाशुचीनां संकेतैकगृहम् । तत् शरीरं जलात् न शुध्यति ॥१॥ आत्मा खभावतः अतीव शुचिः पवित्रः । इति हेतोः । अस्मिन् परे श्रेष्ठे आत्मनि । स्नानं वृथा अफलम् । च पुनः। कायः सदैव अशुचिः एव । तेनै जलेन । शुचिता पवित्रताम् । जातुचित् जिस शरीरकी समीपताके कारण उत्तम माला आदि छूनेके भी योग्य नहीं रहती हैं, जो मल एवं मूत्र आदिसे भरा हुआ है, रस एवं रुधिर आदि सात धातुओंसे रचा गया है, भयानक है, दुर्गन्धसे युक्त है, तथा जो निर्मल आत्माको भी मलिन करता है; ऐसा समस्त अपवित्रताओंके एक संकेतगृह के समान यह मनुष्योंका शरीर जलके स्नानसे कैसे शुद्ध हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता है ॥ १ ॥ आत्मा तो स्वभावसे अत्यन्त पवित्र है, इसलिये उस उत्कृष्ट आत्माके विषयमें स्नान व्यर्थ ही है; तथा शरीर स्वभावसे अपवित्र ही है, इसलिये वह भी कभी उस स्नानके द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है। इस प्रकार खानकी व्यर्थता दोनों ही प्रकारसे सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग उस स्त्रानको करते हैं वह उनके लिये करोड़ों पृथिवीकायिक, जलकायिक एवं अन्य कीड़ोंकी हिंसाका कारण होनेसे पाप और रागका ही कारण होता है। विशेषार्थ- यहां खानकी आवश्यकताका विचार करते हुए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उससे क्या आत्मा पवित्र होती है या शरीर ? इसके उत्तरमें विचार करनेपर यह निश्चित प्रतीत होता है कि उक्त मानके द्वारा आत्मा तो पवित्र होती नहीं है, क्योंकि, वह स्वयं ही पवित्र है । फिर उससे शरीरकी शुद्धि होती हो, सो यह भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह स्वभावसे ही अपवित्र है । जिस प्रकार कोयलेको जलसे रगड़ रगड़कर धोनेपर भी वह कभी कालेपनको नहीं छोड़ सकता है, अथवा मलसे भरा हुआ घट कभी बाहिर मांजनेसे शुद्ध नहीं हो सकता है। उसी प्रकार मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण यह सप्तधातुमय शरीर भी कभी मानके द्वारा शुद्ध नहीं हो सकता है। इस तरह दोनों ही प्रकारसे मानकी व्यर्थता सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग सान करते हैं वे चूंकि जलका यिक, पृथिवीकायिक तथा अन्य त्रस जीवोंका भी उसके द्वारा घात करते हैं; अत एव वे केवल हिंसाजनित पापके भागी होते हैं । इसके अतिरिक्त वे शरीरकी बाह्य स्वच्छतामें राग भी रखते हैं, यह भी पापका ही कारण है । अभिप्राय यह है १कपुनः विण। रक कायः एव अशुचिः तेन ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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