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________________ २५८ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [911:२३-१७निर्गत्योद्तवातबोधितशिखिज्वालाकरालाढहा च्छीतां प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैव धीमान् नरः ॥ १७ ॥ 912) जायेतोगतमोहतो ऽभिलषिता मोक्षे ऽपि सा सिद्धिहत् तद्भतार्थपरिग्रहो भवति किं क्वापि स्पृहालुमुनिः। इत्यालोचनसंगतैकमनसा शुद्धात्मसंबन्धिना तत्त्वज्ञानपरायणेन सततं स्थातव्यमग्राहिणा ॥ १८ ॥ 913) जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च । निर्ग्रन्थतानन्देन । पुनः उज्वलतरध्यान-आश्रितस्फीतया कृत्वा मम दुर्ध्यान-अक्षसुखम् । स्मृतिपथप्रस्थायि स्मरणगोचरम् । कुतः स्यात् भवेत् । उद्तवातबोधितशिखिज्वालाकरालात् गृहात् निर्गत्य पवनप्रेरित-अमिना दग्धगृहात् निर्गत्य। च पुनः । शीतां वापिकां प्राप्य । तत्रैव ज्वलितगृहे । कः धीमान् चतुरः नरः प्रविशति । अपि तु प्रवेशं न करोति ॥ १७ ॥ मोक्षेऽपि अभिलषिता' उद्गतमोहतः । जायेत उत्पद्येत। तस्य मोक्षस्य सा अभिलषिता। सिद्धिहृत् मुक्तिनिषेधिका । जायते । तत्तस्मात्कारणात् । भूतार्थपरिग्रहः सत्यार्थपरिग्रहः मुनिः । किं वापि वस्तुनि । स्पृहालुः भवति । अपि तु न भवति । इति आलोचन. संगतैकमनसा । सततं निरन्तरम् । अग्राहिणा परिग्रहरहितेन । शुद्धात्मसंबन्धिना तत्त्वज्ञानपरायणेन । स्थातव्यम् ॥ १८ ॥ चितः । चिन्तायामपि । मुमुक्षोः मुनेः । रसाः विरसाः जायन्ते । गोष्ठी कथाकौतुकं विघटते। तथा विषयाः शीर्यन्ते शटन्ति । च पुनः । शरीरेऽपि प्रीतिः विरमति । च पुनः । मौनं प्रतिभासते । रहः एकान्ते प्राप्तः । प्रायः बाहुल्येन । दोषः समं सार्धम् । ध्यानसे उत्पन्न इन्द्रियसुख स्मृतिका विषय कहांसे हो सकता है ? अर्थात् निम्रन्थताजन्य सुखके सामने इन्द्रियविषयजन्य सुख तुच्छ प्रतीत होता है, अतः उसकी चाह नष्ट हो जाती है । ठीक है- उत्पन्न हुई वायुके द्वारा प्रगट की गई अग्निकी ज्वालासे भयानक ऐसे घरके भीतरसे निकल कर शीतल वावड़ीको प्राप्त करता हुआ कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष फिरसे उसी जलते हुए घरमें प्रवेश करता है ? अर्थात् कोई नहीं करता है ॥ १७ ॥ मोहके उदयसे जो मोक्षके विषयमें भी अमिलाषा होती है वह सिद्धि (मुक्ति) को नष्ट करनेवाली है। इसलिये भूतार्थ ( सत्यार्थ ) अर्थात् निश्चय नयको ग्रहण करनेवाला मुनि क्या किसी भी पदार्थके विषयमें इच्छायुक्त होता है ? अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार मनमें उपयुक्त विचार करके शुद्ध आत्मासे सम्बन्ध रखते हुए साधुको परिग्रहसे रहित होकर निरन्तर तत्त्वज्ञानमें तत्पर रहना चाहिये ॥ १८॥ चैतन्यस्वरूप आत्माके चिन्तनमें मुमुक्ष जनके रस नीरस हो जाते हैं, सम्मिलित होकर परस्पर चलनेवाली कथाओंका कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रियविषय विलीन हो जाते हैं, शरीरके मी विषयमें प्रेमका अन्त हो जाता है, एकान्तमें मौन प्रतिभासित होता है, तथा वैसी अवस्थामें दोषोंके साथ मन भी मरनेकी इच्छा करता है ।। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणीका आत्मस्वरूपकी ओर लक्ष्य नहीं होता है तमी तक उसे संगीतके सुननेमें, नृत्यपरिपूर्ण नाटक आदिके देखनेमें, परस्पर कथा-वार्ता करनेमें तथा शंगारादिपूर्ण उपन्यास आदिके पढ़ने-सुननमें आनन्द आता है । किन्तु जैसे ही उसके हृदयमें आत्मस्वरूपका बोध उदित होता है वैसे ही उसे उपर्युक्त इन्द्रियविषयोंके निमित्तसे प्राप्त होनेवाला रस (आनन्द ) नीरस प्रतिभासित होने लगता है । अन्य इन्द्रियविषयोंकी तो बात ही क्या, किन्तु उस समय उसका अपने शरीरके विषयमें १श अभिलाषिता
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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