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________________ २५६ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः अस्माकं पुनरेकताश्रयणतो व्यक्तीभवश्चिहुणस्फारीभूतमतिप्रबन्धमहसामात्मैव तत्त्वं परम् ॥ १२ ॥ 907 ) वर्षे हर्षमपाकरोतु तुदतु स्फीता हिमानी तनुं धर्मः शर्महरो ऽस्तु दंशमशकं क्लेशाय संपद्यताम् । अन्यैर्वा बहुभिः परीषहभटैरारभ्यतां मे मृतिक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमतेर्नात्रापि किंचिद्भयम् ॥ १३ ॥ 908) चक्षुर्मुख्य पीककर्षकमयो ग्रामो मृतो मन्यते चेपादिकृषिक्षेमां बलवता बोधारिणा त्याजितः । [906 : २३-१२ वर्तते । किंलक्षणानाम् अस्माकम् । व्यक् तीभवत् प्रकटीभूतचिद्गुण- ज्ञानगुणः तेन स्फारीभूतं मतिप्रबन्धमहः यत्र तेषां महसाम् ॥ १२ ॥ अत्र लोके । वर्ष वर्षाकालः । हर्षम् आनन्दम् । अपाकरोतु दूरीकरोतु । स्फीता हिमानी । तनुं शरीरम् । तुदतु पीडयतु । धर्मः शर्महरः सौख्यहरः अस्तु । दंशमशकं क्लेशाय संपद्यताम् । वा अन्यैः बहुभिः परीषहभटैः । मृतिः मरणम् । आरभ्यताम् । अत्रापि मृत्युविषये । मे मम । किंचिद्भयं न । किंलक्षणस्य मम । मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमतेः ॥ १३ ॥ चेयदि । आत्मा प्रभुः । चक्षुर्मुख्यहृषी ककर्षकमयः इन्द्रियकिसाणमयः । प्रामः मृतः मन्यते । च पुनः । सोऽपि आत्मा प्रभुः शक्तिमान् । तचिन्तां न करोति तस्य इन्द्रियस्य चिन्ता न करोति । किंलक्षण चिन्ताम् । रूपादिकृषिक्षम रूपादिकृषिपोषकाम् । कि स्त्री, पुत्र और मित्र तथा जो शरीर निरन्तर आत्मासे सम्बद्ध रहता है वह भी मेरा नहीं है; मैं चैतन्यका एक पिण्ड हूं - उसको छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है । इस अवस्थामें उसके पूज्य - पूजकभावका भी द्वैत नहीं रहता । कारण यह कि पूज्य पूजकभावरूप बुद्धि भी रागकी परिणति है जो पुण्यबन्धकी कारण होती है । यह पुण्य कर्म भी जीवको देवेन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि के पदोंमें स्थित करके संसारमें ही परतन्त्र रखता है । अत एव इस दृष्टि से वह पूज्य-पूजक भाव भी हेय है, उपादेय केवल एक सच्चिदानन्दमय आत्मा ही है । परन्तु जब तक प्राणीके इस प्रकारकी दृढ़ता प्राप्त नहीं होती तब तक उसे व्यवहारमार्गका आलम्बन लेकर जिन पूजनादि शुभ कार्योंको करना ही चाहिये, अन्यथा उसका संसार दीर्घ हो सकता है ॥ १२ ॥ जब मैं मोक्षविषयक उपदेशसे बुद्धिकी स्थिरताको प्राप्त कर लेता हूं तब भले ही वर्षाकाल मेरे हर्पको नष्ट करे, विस्तृत महान् शैत्य शरीरको पीड़ित करे, घाम ( सूर्यताप ) सुखका अपहरण करे, डांस-मच्छर क्लेशके कारण होवें, अथवा और भी बहुत-से परीषहरूप सुभट मेरे मरणको भी प्रारम्भ कर दें; तो भी इनसे मुझे कुछ भी भय नहीं है ॥ १३ ॥ जो शक्तिशाली आत्मारूप प्रभु चक्षु आदि इन्द्रियोंरूप किसानोंसे निर्मित ग्रामको मरा हुआ समझता है तथा जो ज्ञानरूप बलवान् शत्रुके द्वारा रूपादि विषयरूप कृषिकी भूमिसे भ्रष्ट कराया जा चुका है, फिर भी जो कुछ होनेवाला है उसके विषयमें इस समय चिन्ता नहीं करता है । इस प्रकारसे वह संसारको नष्ट हुएके समान देखता है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार किसी शक्तिशाली गांवके स्वामीकी यदि अन्य प्रबल शत्रुके द्वारा खेतीके योग्य भूमि छीन ली जाती है तो वह अपने किसानों से परिपूर्ण उस गांवको मरा हुआ-सा मानता है । फिर भी वह भवितव्यको प्रधान मानकर उसकी कुछ चिन्ता नहीं करता है । ठीक इसी प्रकारसे सर्वशक्तिमान् आत्माको जब सम्यग्ज्ञानरूप शत्रुके द्वारा रूप- रसादिरूप खेतीके योग्य भूमिसे भ्रष्ट कर दिया जाता है- विवेकबुद्धिके उत्पन्न हो जानेपर जब वह रूपरसादिस्वरूप इन्द्रियविषयोंमें अनुरागसे रहित हो जाता है, तब वह भी उन इन्द्रियरूप किसानोंके गांवको १ च चिद्रूपादिकृषि | २ भभूतः मति, क भूतमति । ३ वा मारणम् ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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