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________________ [१७. सुप्रभाताष्टकम् ] 831 ) निःशेषावरणद्वयस्थितिनिशाप्रान्ते ऽन्तराप्रयक्षया[यो] योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दूरतः। सम्यग्ज्ञानहगक्षियुग्ममभितो विस्फारितं यत्र त ल्लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो जिनेभ्यो नमः॥१॥ 832) यत्सचक्रसुखप्रदं यदमलं बानप्रभाभासुरं लोकालोकपदप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टं सकृत् । उद्भूते सति यत्र जीवितमिव प्राप्तं परं प्राणिभिः । त्रैलोक्याधिपतेर्जिनस्य सततं तत्सुप्रभातं स्तुवे ॥२॥ 833) एकान्तोद्धतवादिकौशिकशतैर्नष्टं भयादाकुलै तिं यत्र विशुद्धखेचरनुतिव्याहारकोलाहलम् । तेभ्यो जिनेभ्यो नमः । यैः जिनैः । इह लोके । तत् अचलं शाश्वतम् । सुप्रभातम् । लब्धं प्राप्तम् । यत्र सुप्रभाते। सम्यग्ज्ञानदृगक्षियुग्मं ज्ञानदर्शननेत्रम् । अभितः समन्तात् । विस्फारितं विस्तारितम् । क्क सति । निःशेषावरणद्वयस्थितिनिशाप्रान्ते उझ्योते (१) ज्ञानावरणादिनिशाविनाशे सति । कस्मात् अन्तरायक्षयात् । च पुनः। मोहकृते । निद्रामरे समूहे। सहसा दूरतः गते सति ॥१॥ त्रैलोक्याधिपतेः जिनस्य तत्सुप्रभातं स्तुवे अहं स्तोमि । यत् सुप्रभातम् । सञ्चसुखप्रदं भव्यचक्रवाकसुखप्रदम् । यत् अमलं निर्मलम् । यत्सुप्रभातम् । ज्ञानप्रभाभासुरं दीप्तिवन्तम् । यत्सुप्रभातं लोक-अलोकप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टम् । यत्र सुप्रभाते । सकृत् एकवारम् । उद्भूते सति । प्राणिभिः जीवैः । परं श्रेष्ठम् । जीवितमिव प्राप्तम् ॥ २ ॥ अर्हत्परमेष्ठिनः तत्सुप्रभातम् । परं श्रेष्ठम् अहं मन्ये । यत्सुप्रभातम् । सद्धर्मविधिप्रवर्धनकरम् । पुनः निरुपमम् उपमारहितम् । पुनः जिस सुप्रभातमें समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दो आवरण कोंकी स्थितिरूप रात्रिका अन्त होकर अन्तराय कर्मके क्षयरूपी प्रकाशके हो जानेपर तथा शीघ्र ही मोह कर्मसे निर्मित निद्राभारके सहसा दूर हो जानेपर समीचीन ज्ञान और दर्शनरूप नेत्रयुगल सब ओर विस्तारको प्राप्त हुए हैं अर्थात् खुल गये हैं ऐसे उस स्थिर सुप्रभातको जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उन जिनेन्द्र देवोंको नमस्कार हो ॥ विशेषार्थजिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर रात्रिका अन्त होकर धीरे धीरे सूर्यका प्रकाश फैलने लगता है तथा लोगोंकी निद्रा दूर होकर उनके नेत्रयुगल खुल जाते हैं जिससे कि वे सब ओर देखने लग जाते हैं। ठीक इसी प्रकारसे जिनेन्द्र देवोंके लिये जिस अपूर्व प्रभातका लाभ हुआ करता है उसमें रात्रिके समान उनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मोकी स्थितिका अन्त होता है, अन्तरायकर्मका क्षय ही प्रकाश है, मोहकर्मजनित अविवेकरूप निद्राका भार नष्ट हो जाता है । तब उनके केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप दोनों नेत्र खुल जाते हैं जिससे वे समस्त ही विश्वको स्पष्टतया जानने और देखने गते हैं। ऐसे उन अलौकिक अविनश्वर सुप्रभातको प्राप्त करनेवाले जिनेन्द्रोंके लिये यहां नमस्कार किया गया है ॥ १॥ जो सुप्रभात सच्चक्र अर्थात् सज्जनसमूहको सुख देनेवाला ( अथवा उत्तम चक्रवाक पक्षियोंके लिये सुख देनेवाला, अथवा समीचीन चक्ररत्नको धारण करनेवाले चक्रवर्तीके सुखको देनेवाला ), निर्मल, ज्ञानकी प्रभासे प्रकाशमान, लोक एवं अलोक रूप स्थानके प्रकाशित करनेकी विधिमें चतुर और उत्कृष्ट है तथा जिसके एक वार प्रकट होनेपर मानो प्राणी उत्कृष्ट जीवनको ही प्राप्त कर लेते हैं; ऐसे उस तीन लोकके अधिपतिस्वरूप जिनेन्द्र भगवान्के सुप्रभातकी मैं निरन्तर स्तुति करता हूं ॥ २ ॥ जिस सुप्रभातमें सर्वथा एकान्तवादसे उद्धत सैकड़ों प्रवादीरूप उल्ल पक्षी भयसे १ कक्ष्यायोते, व क्षयोधाते। २ च यदमलज्ञान । पान.३०
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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