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________________ २२९ -819 :१६-१३] १६. स्वयंभूस्तुतिः 815 ) यदीयपादद्वितयप्रणामतः पतत्यधो मोहनधूलिरङ्गिनाम् । शिरोगता मोहठकप्रयोगतः स पुष्पदन्तः सततं प्रणम्यते ॥५॥ 816) सतां यदीयं वचनं सुशीतलं यदेव चन्द्रादपि चन्दनादपि। तदत्र लोके भवतापहारि यत् प्रणम्यते किं न स शीतलो जिनः॥१०॥ 817) जगत्रये श्रेय इतो ह्ययादिति प्रसिद्धनामा जिन एष वन्द्यते । यतो जनानां बहुभक्तिशालिनां भवन्ति सर्वे सफला मनोरथाः॥११॥ 818) पदाजयुग्मे तव वासुपूज्य तजनस्य पुण्यं प्रणतस्य तद्भवेत् । यतो न सा श्रीरिह हि त्रिविष्टपे न तत्सुखं यन्न पुरः प्रधावति ॥ १२ ॥ 819 ) मलैर्विमुक्तो विमलो न कैर्जिनो यथार्थनामा भुवने नमस्कृतः। तदस्य नामस्मृतिरप्यसंशयं करोति वैमल्यमघात्मनामपि ॥ १३ ॥ संगतः संयुतः न। च पुनः । यः तीर्थकरः दोषाकरताम् अपि । न ययौ न यातवान् ॥८॥ स पुष्पदन्तः जिनः सततं प्रणम्यते। यदीयपादद्वितय प्रणामतः यस्य पुष्पदन्तस्य पादद्वयस्य प्रणामतः। अगिनां प्राणिनाम् । मोहनधूलिः अधः पतति । किंलक्षणा मोहनधूलिः । मोहठप्रयोगतः शिरोगता ॥ ९॥ स शीतलः जिनः किं न प्रणम्यते । अपितु प्रणम्यते । यदीयं वचनम् । सतां साधूनाम् । चन्द्रादपि चन्दनादपि सुशीतलम् । यदेव वचः । अत्र लोके। भवतापहारि संसारतापनाशनम ॥१०॥ एषः श्रेयः इति प्रसिद्वनामा जिनः वन्द्यते। हि यतः । जगत्रये । इतः श्रेयसः सकाशात् । जनः । श्रेयः सुखम् । अयात् । यतः श्रेयसः। जनानां लोकानाम् । सर्वे मनोरथाः सफला भवन्ति । किंलक्षगानां जनानाम् । बहुभक्तिशालिनां बहुभक्तियुक्तानाम् ॥ ११॥ भो वासुपूज्य । तव प्रणतस्य जनस्य । तत्तत्पुण्यं भवेत् । यतः पुण्यात् । इह हि। सा श्री. न तत्सुखं न या श्रीः यत्सुखं पुरः अग्रे न प्रधावति न आगच्छति ॥ १२॥ विमलः जिनः । भुवने त्रिलोके । कैः भव्यैः। न नमस्कृतः। अपि तु सर्वैः नमस्कृतः। किंलक्षण: विमलः । मलैविमुक्तः यथार्थनामा । तत्तसन्तापको नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रभ मुनीन्द्र जयवन्त होवें ॥ ८ ॥ जिसके दोनों चरणोंमें नमस्कार करते समय मोहरूप ठगके प्रयत्नसे प्राणियोंके शिरमें स्थित हुई मोहनधूलि (मोहनजनक पापरज) नीचे गिर जाती है उसे पुष्पदन्त भगवान्को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूं ॥ विशेषार्थ-प्राणियोंके मस्तक ( मस्तिप्क) में जो अज्ञानताके कारण अनेक प्रकारके दुर्विचार उत्पन्न होते हैं वे जिनेन्द्र भगवान्के नामस्मरण, चिन्तन एवं वन्दनसे नष्ट हो जाते हैं। यहां उपर्युक्त दुर्विचारोंमें मोहके द्वारा स्थापित धूलिका आरोप करके यह उत्प्रेक्षा की गई है कि मोहके द्वारा जो प्राणियोंके मस्तकपर मोहनधूलि स्थापित की जाती है वह मानो पुष्पदन्त जिनेन्द्रको प्रणाम करनेसे ( मस्तक झुकानेसे ) अनायास ही नष्ट हो जाती है ॥९॥ लोकमें जिसके वचन सज्जन पुरुषोंके लिये चन्द्रमा और चन्दनसे भी अधिक शीतल तथा संसारके तापको नष्ट करनेवाले हैं उस शीतल जिनको क्या प्रणाम नहीं करना चाहिये ? अर्थात् अवश्य ही वह प्रणाम करनेके योग्य है ॥ १०॥ तीनों लोकोंमें प्राणिसमूह चूंकि इस श्रेयांस जिनसे श्रेय अर्थात् कल्याणको प्राप्त हुआ है इसलिये जो 'श्रेयान्' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है तथा जिसके निमित्तसे बहुत भक्ति करनेवाले जनोंके सब मनोरथ (अभिलाषामें) सफल होते हैं उस श्रेयान् जिनेन्द्रको प्रणाम करता हूं ॥११॥ हे वासुपूज्य ! तेरे चरणयुगलमें प्रणाम करते हुए प्राणीके वह पुण्य उत्पन्न होता है जिससे तीनों लोकोंमें यहां वह कोई लक्ष्मी नहीं तथा वह कोई सुख भी नहीं है जो कि उसके आगे न दौड़ता हो ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि वासुपूज्य जिनेन्द्रके चरण-कमलमें नमस्कार करनेसे जो पुण्यबन्ध होता है उससे सब प्रकारकी लक्ष्मी और उत्तम सुख प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ जो विमल जिनेन्द्र कर्म-मलसे रहित होकर 'विमल' इस सार्थक नामको धारण करते हैं उनको लोकमें भला किन भव्य जीवोंने नमस्कार नहीं किया है ? अर्थात् सभी भव्य जीवोंने उन्हें नमस्कार किया १५ ठग। २क पादाम्ज। ३च पूज्यजनस्य ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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