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________________ -768 : १५२७] १४. जिनवरस्तवनम् २१७ 763) दिट्टे तुमम्मि जिणवर चिंतामणिकामधेणुकप्पतरू । खज्जोय व्व पहाए मज्झ मणे णिप्पहा जाया ॥ २२॥ 764) दिढे तुमम्मि जिणवर रहसरसो मह मणम्मि जो जाओ। आणंदंसमिसो सो तत्तोणीहरउ बहिरंतो॥२३॥ 765 ) दिढे तुमम्मि जिणवर कल्लाणपरंपरा पुरो पुरिसे। संचरइ अणाहूया वि ससहरे किरणमाल व्व ॥ २४ ॥ 766 ) दिटे तुमम्मि जिणवर दिसवल्लीओ फलंति सव्वाओ। इटुं अहुल्लिया वि हु वरिसइ सुण्णं पि रयणेहिं ॥ २५ ॥ 767 ) दिट्रे तुमम्मि जिणवर भव्वो भयवजिओ हवे णवरं । गयणिई चिये जायइ जोण्हापसरे सरे कुमुयं ॥ २६॥ 768) दिटे तुमम्मि जिणवर हियएणं मह सुहं समुल्लसियं । सरिणाहेणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमाइंदे ॥ २७ ॥ दृष्टिः । दोषाकरे । जडे । खस्थे आकाशस्थे । चन्द्रे रमते। किंलक्षणे त्वयि । ज्ञानवति ज्ञानयुक्ते । पुनः दोषोज्झिते सुभटे ॥२१॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति चिन्तामणिरत्नकामधेनुकल्पतरवः मम मनसि निःप्रभा जाताः । खद्योत इव प्रभाते ज्योतिरिंगण इव ॥२२॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति । मम मनसि यः रहस्य रभस ] रसः । जातः उत्पन्नः । स रहस्यरसः। तत्तस्मात्कारणात् । आनन्दाश्रुमिषात् व्याजात् बहिरन्तः निःसरति ॥ २३ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कल्याणपरम्परा अनाहूतापि अचिन्तिता अपि पुरुषस्य अग्रे संचरति आगच्छति । शशधरे चन्द्रे किरणमालावत् ॥ २४ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति सर्वाः दिग्वल्ल्यः फलन्ति इष्टं सुखं फलन्ति । किंलक्षणा दिग्वयः । अफुलिता अपि । हु स्फुटम् । आकाशं रत्नैः वर्षति ॥ २५ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्ट सति भव्यः भयवार्जितो भवेत् । नवरं शीघ्रम् । सरे सरोवरे। कुमुदं चन्द्रोदये सति गतनिद्रं जायते ॥ २६ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति मम हृदयेन सुखं समुल्लसितं शीघ्रण । यथा पूर्णिमाचन्द्रे उद्गमिते सति प्रकटिते सति । सरिनाथेन इव दोषोंसे रहित और वीर ऐसे आपको देख लेनेपर फिर किसकी दृष्टि चन्द्रमाकी ओर रमती है ? अर्थात् आपका दर्शन करके फिर किसीको भी चन्द्रमाके दर्शनकी इच्छा नहीं रहती। कारण कि उसका स्वरूप आपसे विपरीत है- आप ज्ञानी हैं, परन्तु वह जड (मूर्ख, शीतल) है । आप दोषोज्झित अर्थात् अज्ञानादि दोषोंसे रहित हैं, परन्तु वह दोषाकर ( दोषोंकी खान, रात्रिका करनेवाला) है। तथा आप वीर अर्थात् कर्म-शत्रुओंको जीतनेवाले सुभट हैं, परन्तु वह खस्थ (आकाशमें स्थित) अर्थात् भयभीत होकर आकाशमें छिपकर रहनेवाला है ॥ २१ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें चिन्तामणि, कामधेनु आर कल्पवृक्ष भी इस प्रकार कान्तिहीन (फीके) हो गये हैं जिस प्रकार कि प्रभातके हो जानेपर जुगनू कान्तिहीन हो जाती है ॥२२॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें जो हर्षरूप जल उत्पन्न हुआ है वह मानो हर्षके कारण उत्पन्न हुए आंसुओंके मिषसे भीतरसे बाहिर ही निकल रहा है ॥२३॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर कल्याणकी परम्परा (समूह) विना बुलाये ही पुरुषके आगे इस प्रकारसे चलती है जिस प्रकार कि चन्द्रमाके आगे उसकी किरणोंका समूह चलता है ॥ २४ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर सब दिशारूप बेलें फूलोंके विना भी अभीष्ट फल देती हैं, तथा रिक्त भी आकाश रत्नोंकी वर्षा करता है ॥ २५ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर भव्य जीव सहसा भय और निद्रासे इस प्रकार रहित (प्रबुद्ध) हो जाता है जिस प्रकार कि चांदनीका विस्तार होनेपर सरोवरमें कुमुद (सफेद कमल) निद्रासे रहित (प्रफुल्लित ) हो जाता है ॥ २६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरा हृदय सहसा इस प्रकार सुखपूर्वक हर्षको प्राप्त हुआ है जिस प्रकार कि पूर्णिमाके चन्द्रका १ च प्रतिपाठोऽयम् । भकश आणं दामुमिमा। २ अश गयर्णिदच्चिय, बगणणिदोव्वय । ३ भकश जोण्हं पसरे । ४ अ कुमुवं, क कुमुयं, श कुमुदव । ५ श 'जात उत्पन्नः स रहस्यरसः' नास्ति । ६ क किंलक्षणा दिशः। पद्मनं. २८
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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