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________________ -755 : १४-१४] १५. जिनवरस्तवनम् 749) दिटे तुमम्मि जिणवर वियारपडिवजिए परमसंते । जस्स ण हिट्ठी दिट्ठी तस्स ण णवजम्मैविच्छेओ॥८॥ 750) दिढे तुमम्मि जिणवर ज मह कजंतराउलं हिययं । कड्या वि हवइ पुव्यजियस्स कम्मरस सो दोसो॥९॥ 751 ) दिढे तुमम्मि जिणवर अच्छउ जम्मंतरं ममेहावि । सहसा सुहेहिं घडियं दुक्खेहिं पलाइयं दूरं ॥ १० ॥ 752) दिटे तुमम्मि जिणवर बज्झइ पट्टो दिणम्मि अजयणे । सहलत्तणेण मज्झे सव्वदिणाणं पि सेसाणं ॥ ११ ॥ 753) दिढे तुमम्मि जिणवर भवणमिणं तुज्झ मह महग्यतरं । __सव्वाणं पि सिरीणं संकेयघरं व पडिहाइ ॥ १२॥ 754 ) दिढे तुमम्मि जिणवर भत्तिजलोलं समासियं छेत्तं । जं तं पुलयमिसा पुण्णबीयमंकुरियमिव सहइ ॥ १३॥ 755 ) दिढे तुमम्मि जिणवर समयामयसायरे गहीरम्मि । रायाइदोसकलसे देवे को मण्णए सयाणो ॥ १४ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति यस्य दृष्टिः हर्षिता न तस्य नवजन्मविच्छेदः न । किंलक्षणे त्वयि । विकारपरिवर्जिते परमशान्ते ॥ ८ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कदापि यन्मम हृदयं कार्यान्तराकुलं भवति स पूर्वार्जितकर्मणो दोषः ॥ ९ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति जन्मान्तरेऽपि मम वाञ्छा दूरे तिष्ठतु। इदानीं सहसा शीघ्रम् । अहं सुखैः घटितम् आश्रितम् । दूरम् अतिशयेन। दुःखैः पलायितं त्यक्तम् ॥ १० ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति जनः लोकः अद्यदिने [ अद्यतने] सर्वदिनानां शेषाणां मध्ये सफलत्वेन पट्टे बध्नाति ॥ ११॥"भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति इदं तव भवनं समवसरणं महत् मह [ हा ] घेतरं प्रतिभाति शोभते । किंलक्षणं समवसरणम् । सर्वासां श्रीणां संकेतगृहमिव ॥ १२ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति यत् शरीरे भक्तिजलेन व्याप्तं समाश्रितम्। तत् शरीरं पुलकितमिषेण व्याजेन पुण्यबीजम् अकुरितम् इव सहइ शोभते पुण्याङ्कुरमिव ॥ १३॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति रागादिदोषकलुषे देवे कः सज्ञानः अनुरागं प्रीतिं मन्यते । अपि तु सज्ञानः उत्पन्न करता है ॥ ७॥ हे जिनेन्द्र ! रागादि विकारोंसे रहित एवं अतिशय शान्त ऐसे आपका दर्शन होनेपर जिसकी दृष्टि हर्षको प्राप्त नहीं होती है उसके नवीन जन्मका नाश नहीं हो सकता है, अर्थात उसकी संसारपरम्परा चलती ही रहेगी ॥ ८॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर यदि मेरा हृदय कभी दूसरे किसी महान् कार्यसे व्याकुल होता है तो वह पूर्वोपार्जित कर्मके दोषसे होता है ॥९॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जन्मान्तरके सुखकी इच्छा तो दूर रहे, किन्तु उससे इस लोकमें भी मुझे अकस्मात सुख प्राप्त हुआ है और दुख सब दूर भाग गये हैं ॥ १० ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर शेष सब ही दिनोंके मध्यमें आजके दिन सफलताका पट्ट बांधा गया है । अभिप्राय यह है कि इतने दिनोंमें आजका यह मेरा दिन सफल हुआ है, क्योंकि, आज मुझे चिरसंचित पापको नष्ट करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ११॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर यह तुम्हारा महा- मूल्यवान् घर (जिनमन्दिर) मुझे सभी लक्ष्मियोंके संकेतगृहके समान प्रतिभासित होता है। अभिप्राय यह कि यहां आपका दर्शन करनेपर मुझे सब प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त होनेवाली है।। १२ ॥ हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होनेपर भक्तिरूप जलसे आई हुए खेत (शरीर) को जो पुण्यरूप बीज प्राप्त हुआ था वह मानो रोमांचके मिषसे अंकुरित होकर ही शोभायमान हो रहा है ।। १३ ॥ हे जिनेन्द्र ! सिद्धान्तरूप अमृतके समुद्र एवं गम्भीर ऐसे आपका दर्शन होनेपर १च हिट्ठि। २ श ण णियजम्म। ३श निजजन्म। ४श जनैः लोकैः। ५क-प्रतावस्या गाथायाष्टीकैवंविधास्ति-दुष्ठे त्वयि जिनवर भवनमिदं तव मम मध्यंतरं प्रतिभाति शोभते समवशरणं सर्वासामपि श्रीणां संकेतगृहमिव ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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