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________________ २१० पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [722 : १३४१722) अण्णो को तुह पुरओ वग्गइ गरुयत्तणं पयासंतो। जम्मि तइ परमियत्तं केसणहाणं पि जिण जायं ॥ ४१ ॥ 723) सहई सरीरं तुह पहु तिहुयणजणणयणबिंबविच्छुरियं । पडिसमयमच्चियं चारुतरलणीलुप्पलेहिं वै ॥ ४२ ॥ 724) अहमहमियाए णिवडंति णाह छुहियालिणो व्य हरिचक्खू । तुज्झ च्चिय णहपहसरमज्झट्टियंचलणकमलेसुं ॥४३॥ 725 ) कणयकमलाणमुवरि सेवा तुह विबुहकप्पियाण तुहं । अहियसिरीणं तत्तो जुत्तं चरणाण संचरणं ॥ ४४ ॥ 726) सइ-हरिकयकण्णसु हो गिजइ अमरेहिं तुह जसो सग्गे। मण्णे तं सोउमणो हरिणो हरिणकमल्लीणो॥ ४५ ॥ इव ॥४०॥ भो जिन । तव पुरतः अग्रे अन्यः कः वल्ाति गुरुत्वं प्रकाशयन् यस्मिन् त्वयि केशनखानाम् अपि प्रमाणत्वं जातम् ॥ ४ ॥ भो प्रभो। तव शरीरं शोभते । किंलक्षणं शरीरम् । त्रिभुवनजननयन बिम्बेषु विस्फुरितं प्रतिबिम्बितम् । च पुनः। किंलक्षण शरीरम् । चारुतरलनीलोत्पलेः कमलैः प्रतिसमयम् अर्चितम् ॥ ४२ ॥ भो नाथ भो अर्घ्य । तव नखप्रभासरोमध्यस्थित चरणकमलेषु । हरिचदंषि इन्द्रनयनानि । अहमहमिकया अहं प्रथमम् आगतम् । निपतन्ति । किंलक्षणानि नय. नानि । क्षुधिता भ्रमरा इव ॥ ४३ ॥ तत्तस्मात्कारणात् । तव चरणानां कनककमलानाम् उपरि संचरणं गमनं युक्तम् । किंलक्षणानां चरणानाम् । अधिकश्रीणाम् । पुनः किंलक्षणानाम् । कनककमलानां तव सेवानिमित्तं विबुधदेवकल्पितानां रचितानाम् । विबुधैः देवैः स्थापितानाम् ॥ ४४ ॥ भो देव । तव यशः देवैः खर्गे गीयते। किंलक्षणं यशः । शची-इन्द्रकृतकर्णसुख शचीइन्द्रयोः कृतकर्णसुखम् । अहम् एवं मन्ये । तद्यशः श्रोतुमनाः हरिणः मृगः चन्द्रक्रमलीनः [ चन्द्रमालीनः ] ॥ ४५ ॥ जिन आपमें बाल और नख भी परिमितताको प्राप्त अर्थात् वृद्धिसे रहित हो गये थे उन आपके आगे दूसरा कौन अपनी महिमाको प्रगट करते हुए जा सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ विशेषार्थ-केवलज्ञानके प्रगट हो जानेपर नख और बालोंकी वृद्धि नहीं होती। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह नख-केशोंकी वृद्धिका अभाव मानो यह सूचना ही करता था कि ये जिनेन्द्र भगवान् सर्वश्रेष्ठ हैं, इनके आगे किसी दूसरेका प्रभाव नहीं रह सकता है ॥ ४१ ॥ हे प्रभो! आपके शरीरपर जो तीनों लोकोंके प्राणियोंके नेत्रोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था उससे व्याप्त वह शरीर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह निरन्तर सुन्दर एवं चंचल नील कमलों के द्वारा पूजाको ही प्राप्त हो रहा है ॥ ४२ ॥ हे नाथ ! तुम्हारे ही नखोंकी कान्तिरूप सरोवरके मध्यमें स्थित चरणरूप कमलोंके ऊपर जो इन्द्रके नेत्र गिरते हैं वे ऐसे दिखते हैं जैसे मानो अहमहमिका अर्थात् मैं पहिले पहुंचूं , मैं पहिले पहुंचूं, इस रूपसे भूखे भ्रमर ही उनपर गिर रहे हैं ॥ ४३ ॥ हे भगवन् ! तुम्हारी सेवाके लिये देवोंके द्वारा रचे गये सुवर्णमय कमलों के ऊपर जो आपके चरणोंका संचार होता था वह योग्य ही था, क्योंकि, आपके चरणोंकी शोभा उन कमलोंसे अधिक थी ॥ ४४ ॥ हे जिनेन्द्र ! स्वर्गमें इन्द्राणी और इन्द्रके कानोंको सुख देनेवाला जो देवोंके द्वारा आपका यशोगान किया जाता है उसको सुननेके लिये उत्सुक होकर ही मानो हिरणने चन्द्रका आश्रय लिया है, ऐसा मैं समझता हूं ॥ ४५ ॥ हे जिनेन्द्र ! कमलमें लक्ष्मी रहती है, यह कहना असत्य है; कारण कि वह तो आपके चरणकमलमें रहती है । तभी तो नमस्कार करते हुए जनोंके ऊपर १क श सोहइ। २ च प्रतिपाठोऽयम् । अकश 'च'। ३ क मइटिय। ४ भ'अहं प्रथम आगतं' नास्ति। ५क 'विबुधदेवकल्पितानां रचितानां नास्ति । ६ श चन्द्रक्रमालीनः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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