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________________ १८८ पममन्दि-पञ्चविंशतिः [686:१५-३९636) स्वान्तं ध्वान्तमशेष दोषोज्झितमर्कविम्वमिव मार्गे। विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं यतीशानाम् ॥ ३९ ॥ 637 ) संविच्छिखिना गलिते तनुमूषाकर्ममदनमयवपुषि। स्वमिव स्वं चिद्रूपं पश्यन् योगी भवति सिद्धः ॥ ४० ॥ 638 ) अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एव । __नान्यत् किमपि जडत्वात्प्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥४१॥ 639) खपरविभागावगमे जाते सम्यक् परे परित्यक्त। सहजैकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिद्धः॥ ४२ ॥ वृक्षस्य । विषयसुखच्छायालामेन किं तुष्टोऽसि । अमृतफलं गृहाण मोक्षफलं गृहाण ॥ ३८ ॥ यतीशाना खान्तं मनः । निरालम्बे मागें अनिशं संचरत् । अशेषं समस्तम्। ध्वान्तम् अन्धकारम् । विनिहन्ति स्फेटयति । किंलक्षणं मनः । दोषोज्झितम् । अर्कविम्बमिव सूर्यबिम्बमिव ॥ ३९॥ योगी खं चिद्रूपं पश्यन् सिद्धः भवति । क सति । तनु-शरीरमूषा-मसि (1)। कर्ममदनमयवपुषि कर्ममयणमयशरीरे । संविच्छिखिना ज्ञानामिना । गलिते सति योगी सिद्धः भवति ॥ ४० ॥ महविद्रपः एव चित्वरूपः । मम चिद्रूपस्य । स एव चित्खरूपः आश्रयः। किमपि अन्यत् न । कस्मात् । जडत्वात् । प्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥४१॥ स्वपरविभाग-अवगमे भेदज्ञाने जाते सति उत्पन्ने सति । परवस्तुनि परित्यक्ते सति । जिस प्रकार सूर्यके तापसे सन्तप्त कोई पथिक मार्गमें छायायुक्त वृक्षको पाकर उसकी केवल छायासे ही सन्तुष्ट हो जाता है, यदि वह उसमें लगे हुए फलोंको ग्रहण करनेका प्रयत्न करता तो उसे इससे भी कहीं अधिक सुख प्राप्त हो सकता था। ठीक इसी प्रकारसे यह जीव मनुष्य पर्यायको पाकर उससे प्राप्त होने. वाले विषयसुखका अनुभव करता हुआ इतने मात्रसे ही सन्तुष्ट हो जाता है । परन्तु वह अज्ञानतावश यह नहीं सोचता कि इस मनुष्य पर्यायसे तो वह अजर-अमर पद (मोक्ष) प्राप्त किया जा सकता है जो कि अन्य देवादि पर्यायसे दुर्लभ है । इसीलिये यहां मनको सम्बोधित करके यह उपदेश दिया गया है कि तू इस दुर्लभ मनुष्य पर्यायको पाकर उस अस्थिर विषयसुखमें ही सन्तुष्ट न हो, किन्तु स्थिर मोक्षसुखको प्राप्त करनेका उद्यम कर ॥ ३८ ॥ मुनियोंका मन सूर्यबिम्बके समान आलम्बन रहित मार्गमें निरन्तर संचार करता हुआ दोषोंसे रहित होकर समस्त अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करता है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्यका विम्ब निराधार आकाशमार्गमें गमन करता हुआ दोषा (रात्रि) के सम्बन्धसे रहित होकर समस्त अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार मुनियोंका मन अनेक प्रकारके सकल्प-विकल्पोंरूप आश्रयसे रहित मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होकर दोषोंके संसर्गसे रहित होता हुआ समस्त अज्ञानको नष्ट कर देता है ॥ ३९॥ सम्यग्ज्ञानरूप अग्निके निमित्तसे शरीररूप सांचे से कर्मरूप मैनमय शरीरके गल जानेपर आकाशके समान अपने चैतन्य स्वरूपको देखनेवाला योगी सिद्ध हो जाता है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अनिके सम्बन्धसे सांचेके भीतर स्थित मैनेके गल जानेपर वहां शुद्ध आकाश ही शेष रह जाता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके द्वारा शरीरमेंसे कार्मण पिण्डके निर्जीर्ण हो जानेपर अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रगट हो जाता है । उसका अवलोकन करता हुआ योगी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥ ४० ॥ मैं ही चित्स्वरूप हूं, और चित्स्वरूप जो मैं हूं सो मेरा आश्रय भी वही चित्स्वरूप है । उसको छोड़कर जड़ होनेसे और कोई दूसरा मेरा आश्रय नहीं हो सकता है। यह ठीक भी है, क्योंकि, समान व्यक्तियों में जो प्रेम होता है वही कल्याणकारक होता है ।। ४१ ॥ ख और परके विभाग ( भेद) का ज्ञान हो जानेपर यह आत्मा भली भांति परको छोड़कर स्वयं सिद्ध १श स्फोटयति। २श कर्ममय, ब-प्रतिपाठोऽयम् ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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