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________________ १८३ 613 : ११-१६] ११. निश्चयपश्चाशत् 610 ) सम्यकसुखबोधदृशां त्रितयमखण्ड परात्मनो रूपम् । तत्तत्र तत्परो यः स एव तल्लब्धिकृतकृत्यः॥ १३॥ 611) अग्नाविवोष्णभावः सम्यग्बोधो ऽस्तिं दर्शनं शुद्धम् । शातं प्रतीतैमाभ्यां सूत्स्वास्थ्यं भवति चारित्रम् ॥ १४ ॥ 612) विहिताभ्यासा बहिरर्थवेध्यसंबन्धिनो गादिशराः। सफलाः शुद्धात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाताः ॥ १५॥ 613) हिंसोज्झित एकाकी सर्वोपद्रवसहो वनस्थोऽपि। तरुरिव नरो न सिध्यति सम्यग्बोघाइते जातु ॥ १६ ॥ संसारनाशाय भवति । भूतार्थपथप्रस्थितबुद्धेः निश्चयमार्गचलितबुद्धेः मुनेः । आत्मैव तत्रितयम् ॥ १२ ॥ सम्यक्सुखबोधदृशा दर्शनज्ञानचारित्राणाम् । त्रितयं परात्मनः रूपम् । अखण्डं परिपूर्णम् । तत्तस्मात्कारणात् । यः भव्यः । तत्र भात्मनि विषये तत्परः स एव भव्यः तल्लब्धिकृतकृत्यः तस्य आत्मनः लन्धिना कृतकृत्यः ॥ १३ ॥ शुद्ध दर्शनं ज्ञातं प्रतीतम् अस्ति । अमो विषये यथा उष्णभावः तथा सम्यगभावबोधोऽस्ति। आभ्यां द्वाभ्याम् । स्वास्थ्यं सत् चारित्रं भवति॥१४॥ गादिशराः दर्शनादिवाणाः । शुद्धात्मरणे संग्रामे सफला भवन्ति । किंलक्षणाः शराः । छिन्दितकर्म-अरिसंघाताः छिन्दितकर्मशत्रुसमूहाः। पुनः किंलक्षणा बाणाः। बहिरर्थवेध्यसंबन्धिनः विहित-अभ्यासाः॥१५॥ नरः सम्यम्बोधात् ऋते रहितः। जातु कदाचित् । न सिध्यति । स नरः तरुः इव । किलक्षणः नरः । हिंसोज्झितः हिंसारहितः । पुनः एकाकी । पुनः किंलक्षणः ज्ञान और स्थिति (चारित्र) रूप रत्नत्रय संसारके नाशका कारण है । किन्तु जिसकी बुद्धि शुद्ध निश्चयनयके मार्गमें प्रवृत्त हो चुकी है उसके लिये वे तीनों (सम्यग्दर्शनादि) एक आत्मस्यरूप ही हैं-उससे भिन्न नहीं हैं ॥ १२ ॥ समीचीन सुख (चारित्र), ज्ञान और दर्शन इन तीनोंकी एकता परमात्माका अखण्ड स्वरूप है । इसीलिये जो जीव उपर्युक्त परमात्मस्वरूपमें लीन होता है वही उनकी प्राप्तिसे कृतकृत्य होता है ॥ १३ ॥ जिस प्रकार अभेदस्वरूपसे अमिमें उष्णता रहती है उसी प्रकारसे आत्मामें ज्ञान है, इस प्रकारकी प्रतीतिका नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन और उसी प्रकारसे जाननेका नाम सम्यग्ज्ञान हैं । इन दोनोंके साथ उक्त आत्माके स्वरूपमें स्थित होनेका नाम सम्यक्चारित्र है ॥ १४ ॥ जो सम्यग्दर्शन आदिरूप बाण बाह्य वस्तुरूप वेध्य (लक्ष्य ) से सम्बन्ध रखते हैं तथा जिन्होंने इस कार्यका अभ्यास मी किया है वे सम्यग्दर्शनादिरूप बाण शुद्ध आत्मारूप रणमें कर्मरूप शत्रुओंके समूहको नष्ट करके सफल होते हैं ॥ १५ ॥ जो मनुष्य वृक्षके समान हिंसाकर्मसे रहित है, अकेला है अर्थात् किसी सहायककी अपेक्षा नहीं करता है, समस्त उपद्रवोंको सहन करनेवाला है, तथा वनमें स्थित मी है, फिर भी वह सम्यग्ज्ञानके विना कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता है । विशेषार्थ-वनमें अकेला स्थित जो वृक्ष शैत्य एवं गर्मी आदिके उपद्रवोंको सहता है तथा स्थावर होनेके कारण हिंसाकर्मसे भी रहित है, फिर भी सम्यम्ज्ञानसे रहित होनेके कारण जिस प्रकार वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता है उसी प्रकार जो मनुष्य साधु हो करके सब प्रकारके उपद्रवों एवं परीषहोंको सहन करता है, घरको छोड़कर वनमें एकाकी रह रहा है, तथा प्राणिघातसे विरत है। फिर भी यदि उसने सम्यग्ज्ञानको नहीं प्राप्त किया है तो वह भी कभी मुक्त नहीं हो १५ बोस्ति । २ प्रवीति । ३ क कर्मसमूहः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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