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________________ १३२ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः [421 : ६२५421) पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः । वस्त्रपूतं पिबेत्तोयं रात्रिभोजनवर्जनम् ॥ २५॥ 422) तं देशं तं नरं तत्वं तत्कर्माणि च नाश्रयेत् । मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम् ॥२६॥ 423) भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा । व्रतशून्या न कर्तव्या काचित् कालकला बुधैः॥२७॥ 424 ) रत्नत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यरतन्द्रितैः । जन्मान्तरे ऽपि तच्छ्रद्धा यथा संवर्धते तराम् ॥२८॥ श्रावकैः अथ पर्वसु यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः कर्तव्यम् । गृहस्थः । तोयं जलम् । वस्त्रपूतं पिबेत् । गृहस्थः रात्रिभोजनवर्जनं करोति ॥ २५॥ येन कर्मणा दर्शनं मलिनं भवति । च पुनः । येन कर्मणा व्रतखण्डनं भवति । तं देशं तं नरे तत् स्खं द्रव्यं तत्कर्माणि अपि न आश्रयेत् ॥ २६ ॥ बुधैः चतुरैः। सदा सर्वदा। भोगोपभोगसंख्यानम् । विधिवत् विधिपूर्वकम् । विधेयं कर्तव्यम् । काचित् कालकला व्रतशून्या न कर्तव्या ॥ २७ ॥ भव्यैः । अतन्द्रितैः आलस्यरहितैः । तथा रत्नत्रयस्य आश्रयः कार्यः कर्तव्यः यथा तस्य दर्शनस्य रत्नत्रयस्य श्रद्धा जन्मान्तरेऽपि तराम् अतिशयेन संवर्धते ॥ २८ ॥ चाहिये कि जिस संसारमें मैं रह रहा हूं वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखस्वरूप है, तथा आत्मखरूपसे भिन्न है। किन्तु इसके विपरीत मोक्ष शरण है, शुभ है, नित्य है, निराकुल सुखस्वरूप है, और आत्मखरूपसे अभिन्न है; इत्यादि । अष्टमी एवं चतुर्दशी आदिको अन्न, पान ( दूध आदि), खाद्य (लड्डू-पेड़ा आदि) और लेह्य ( चाटने योग्य रबड़ी आदि) इन चार प्रकारके आहारोंका परित्याग करना; इसे प्रोषधोपवास कहा जाता है । प्रोषधोपवास यह पद प्रोषध और उपवास इन दो शब्दोंके समाससे निष्पन्न हुआ है। इनमें प्रोषध शब्दका अर्थ एक वार भोजन (एकाशन) तथा उपवास शब्दका अर्थ चारों प्रकारके आहारका छोड़ना है । अभिप्राय यह कि एकाशनपूर्वक जो उपवास किया जाता है वह प्रोषधोपवास कहलाता है। जैसे-यदि अष्टमीका प्रोषधोपवास करना है तो सप्तमी और नवमीको एकाशन तथा अष्टमीको उपवास करना चाहिये । इस प्रकार प्रोषधोपवासमें सोलह पहरके लिये आहारका त्याग किया जाता है । प्रोषधोपवासके दिन पांच पाप, मान, अलंकार तथा सब प्रकारके आरम्भको छोड़कर ध्यानाध्यायनादिमें ही समयको विताना चाहिये । किसी प्रत्युपकार आदिकी अभिलाषा न करके जो मुनि आदि सत्पात्रोंके लिये दान दिया जाता है, इसे वैयावृत्य कहते हैं। इस वैयावृत्यमें दानके अतिरिक्त संयमी जनोंकी यथायोग्य सेवा-शुश्रूषा करके उनके कष्टको मी दूर करना चाहिये । किन्हीं आचार्योंके मतानुसार देशावकाशिक व्रतको गुणवतके अन्तर्गत तथा भोगोपभोगपरिमाणव्रतको शिक्षाव्रतके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है ॥ २४ ॥ श्रावकको पर्वदिनों (अष्टमी एवं चतुर्दशी आदि) में अपनी शक्तिके अनुसार भोजनके परित्याग आदिरूप (अनशनादि) तपोंको करना चाहिये । इसके साथ ही उन्हें रात्रिभोजनको छोड़कर वस्त्रसे छना हुआ जल भी पीना चाहिये ॥ २५ ॥ जिस देशादिके निमित्तसे सम्यग्दर्शन मलिन होता हो तथा व्रतोंका नाश होता हो ऐसे उस देशका, उस मनुष्यका, उस द्रव्यका तथा उन क्रियाओंका भी परित्याग कर देना चाहिये ॥ २६ ॥ विद्वान् मनुष्योंको नियमानुसार सदा भोग और उपभोगरूप वस्तुओंका प्रमाण कर लेना चाहिये । उनका थोड़ा-सा भी समय व्रतोंसे रहित नहीं जाना चाहिये ॥ विशेषार्थ-जो वस्तु एक ही वार उपयोगमें आया करती है उसे भोग कहा जाता है-जैसे भोज्य पदार्थ एवं माला आदि । इसके विपरीत जो वस्तु अनेक वार उपयोगमें आया करती है वह उपभोग कहलाती है-जैसे वस्त्र आदि । इन दोनों ही प्रकारके पदार्थोंका प्रमाण करके श्रावकको उससे अधिककी इच्छा नहीं करना चाहिये ॥ २७ ॥ भव्य जीवोंको आलस्य छोड़कर रत्नत्रयका आश्रय इस प्रकारसे करना चाहिये कि जिस प्रकारसे उनका उक्त १मक तत्कर्माणि न ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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