SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -368 : ४-६१] ४. एकत्वसप्ततिः 365 ) अतिसूक्ष्ममतिस्थूलमेकं चानेकमेव यत् । स्वसंवेद्यमवेधं च यदक्षरमनक्षरम् ॥५८॥ 366) अनौपम्यमनिर्देश्यमप्रमेयमनाकुलम् । शून्यं पूर्ण च यन्नित्यमनित्यं च प्रचक्ष्यते ॥ ५९॥ 367 ) निःशरीरं निरालम्ब निःशब्दं निरुपाधि यत् । चिदात्मकं परंज्योतिरवामानसगोचरम् ॥६०॥ 368) इत्यत्र गहने ऽत्यन्तदुर्लक्ष्ये परमात्मनि । उच्यते यत्तदाकाशं प्रत्यालेख्यं विलिख्यते ॥ ६१ ॥ म्परापथ-मार्गभ्रमणेन कृतश्रमम् उत्पन्नं श्रमं खेदम् । नाशयन्तु स्फेटयन्तु ॥ ५७ ॥ यत् ज्योतिः अतिसूक्ष्मं प्रचक्ष्यते कथ्यते अमूर्तत्वात् । यज्योतिः अतिस्थूलं प्रचक्ष्यते कथ्यते। कस्मात् । अनन्तगुणाश्रयत्वात् । यज्योतिः एकं प्रचक्ष्यते शुद्धद्रव्यार्थिकेन । यज्योतिः अनेकं प्रचक्ष्यते कथ्यते गुणापेक्षया अथवा दर्शनज्ञानचारित्रतः । यज्योतिः स्वसंवेद्यम् । कस्मात् । सहजज्ञानपरिच्छेद्यत्वात् । यज्योतिः अवेद्यम् । कस्मात् । क्षायोपशमिकज्ञानेन अपरिच्छेद्यत्वात् । यज्योतिः अक्षरे, न क्षरति इति अक्षर, विनाशरहितत्वात् । च पुनः । यज्योतिः अनक्षरम् । कस्मात् । अक्षररहितत्वात् । यज्योतिः अनौपम्यम् असाधारणगुणसहितत्वेन उपमातीतम् । यज्योतिः अनिर्देश्यम् । कस्मात् । कथितुमशक्यत्वात् । यज्योतिः अप्रमेयम् । कस्मात् । प्रमातुमशक्यत्वात् वा प्रमाणातीतत्वात् । यज्योतिः अनाकुलम् आकुलतारहितम् । यज्योतिः शून्यं परपर चतुष्टयेन शून्यम् । च पुनः । यज्योतिः पूर्ण स्वचतुष्टयेन पूर्णम् । यज्योतिः नित्यं द्रव्यापेक्षया नित्यम् । यज्योतिः अनित्यं पर्यायार्थिकनयेन अनित्यं प्रचक्ष्यते कथ्यते ॥५८-५९ ॥ यत् परंज्योतिः । निःशरीरै शरीररहितम् । यज्योतिः निरालम्बम् आलम्बनरहितम् । यज्योतिः निःशब्दं शब्दरहितम् । यज्योतिः निरुपाधि उपाधिरहितम्। यज्योतिः चिदात्मकम् । यज्योतिः अवाच्यानसगोचरम् अतीन्द्रियज्ञानगोचरम् ॥ ६० ॥ इति पूर्वोक्तप्रकारेण । अत्र परमात्मनि विषये । यत् उच्यते कथ्यते तत् आकाशं प्रति आलेख्यं चित्रामं विलिख्यते मार्गमें परिभ्रमण करनेसे उत्पन्न हुई थकावटको दूर करें ।। ५७ ॥ वह आत्मज्योति अतिशय सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, एक भी है और अनेक भी है, स्वसंवेद्य भी है और अवेद्य भी है, तथा अक्षर भी है और अनक्षर भी है। वह ज्योति अनुपम, अनिर्देश्य, अप्रमेय एवं अनाकुल होकर शून्य भी कही जाती है और पूर्ण भी, नित्य भी कही जाती है और अनित्य भी ॥ विशेषार्थ-वह आत्मज्योति निश्चयनयकी अपेक्षा रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित होनेके कारण सूक्ष्म तथा व्यवहारनयकी अपेक्षा शरीराश्रित होनेसे स्थूल भी कही जाती है । इसी प्रकार वह शुद्ध चैतन्यरूप सामान्य स्वभावकी अपेक्षा एक तथा व्यवहारनयकी अपेक्षा भिन्न भिन्न शरीर आदिके आश्रित रहनेसे अनेक भी कही जाती है। वह स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जाननेके योग्य होनेसे स्वसंवेद्य तथा इन्द्रियजनित ज्ञानकी अविषय होनेसे अवेद्य भी कही जाती है। वह निश्चयसे विनाशरहित होनेसे अक्षर तथा अकारादि अक्षरोंसे रहित होनेके कारण अथवा व्यवहारकी अपेक्षा विनष्ट होनेसे अनक्षर भी कही जाती है। वही आत्मज्योति उपमारहित होनेसे अनुपम, निश्चयनयसे शब्दका अविषय होनेसे अनिर्देश्य ( अवाच्य), सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय न होनेसे अप्रमेय तथा आकुलतासे रहित होनेके कारण अनाकुल भी है। इसके अतिरिक्त चूंकि वह मूर्तिक समस्त बाह्य पदार्थोंके संयोगसे रहित है अत एव शून्य तथा अपने ज्ञानादि गुणोंसे परिपूर्ण होनेसे पूर्ण भी मानी जाती है, अथवा परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा शून्य और स्वकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा पूर्ण भी मानी जाती है। वह द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा विनाशरहित होनेसे नित्य तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्य भी कही जाती है ॥ ५८-५९ ॥ वह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति चूंकि शरीर, आलम्बन, शब्द तथा और भी अन्यान्य विशेषणोंसे रहित है; अत एव वह वचन एवं मनके मी अगोचर है ॥ ६० ॥ इस प्रकार उस परमात्माके दुरधिगम्य एवं अत्यन्त दुर्लक्ष्य ( अदृश्य ) होनेपर उसके विषयमें जो कुछ भी कहा जाता है वह आकाशमें चित्रलेखनके १ वाग्मनसगोचरम्, श वाचनसगोचरम् । २ म श स्फोटयन्तु। ३ श प्रचक्षते। ४ म श अविनाशत्वात् ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy