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________________ ११२ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [315 : ४-८315 ) केचित् किंचित्परिज्ञाय कुतश्चिद्भर्विताशयाः। जगन्मन्दं प्रपश्यन्तो नाश्रयन्ति मनीषिणः॥८॥ 316) जन्तुमुद्धरते धर्मः पतन्तं दुःखसंकटे । अन्यथा स कृतो भ्रान्त्या लोकैद्यः परीक्षितः॥९॥ 317) सर्वविद्वीतरागोको धर्मः सूनृततां व्रजेत् । प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाचः प्रामाण्य मिष्यते ॥ बुद्धयः ॥ ७॥ केचिज्जीवाः। कुतश्चित् शास्त्रात् । किंचित्तत्त्वम् । परिज्ञाय ज्ञात्वा । जगन्मन्दं मूर्खम् । प्रपश्यन्तः । मनीषिणः पण्डिताः। परमात्मतत्त्वं न आश्रयन्ति न प्राप्नुवन्ति । किंलक्षणाः पण्डिताः । गर्विताशयाः गर्वितचित्ताः॥८॥ धर्मः दुःखसंकटे पतन्तम् । जन्तुं जीवम् । उद्धरते । स दयाधर्मः आत्मधर्मः । लोकैः भ्रान्त्या अन्यथा कृतः । साधुजने: परीक्षितः परीक्षा कृत्वा । प्रायः ग्रहणीयः ॥ ९॥ सर्ववित् सर्वज्ञः वीतरागः तेन उक्तः धर्मः सूनृततां व्रजेत् सत्यतां व्रजेत् । यतः कारणात् । के द्वारा प्ररूपित खोटे शास्त्रोंके अभ्याससे पदार्थको सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके अनेक धर्मात्मक (अनेकान्तात्मक) स्वरूपको नहीं जानते हैं और इसीलिये वे विनाशको प्राप्त होते हैं ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार किसी एक ही पुरुषमें पितृत्व, पुत्रत्व, भागिनेयत्व और मातुलत्व आदि अनेक धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षासे रहते हैं तथा अपेक्षाकृत होनेसे उनमें परस्पर किसी प्रकारका विरोध भी नहीं आता है। इसी प्रकारसे प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्म रहते हैं । किन्तु कितने ही एकान्तवादी उनकी अपेक्षाकृत सत्यताको न समझकर उनमें परस्पर विरोध बतलाते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार किसी एक ही पदार्थमें एक साथ शीतता और उष्णता ये दोनों धर्म नहीं रह सकते हैं उसी प्रकारसे एक ही पदार्थमें नित्यत्व-अनित्यत्व, पृथक्त्वापृथक्त्व तथा एकत्वानेकत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म भी एक साथ नहीं रह सकते हैं। परन्तु यदि इसपर गम्भीर दृष्टिसे विचार किया जाय तो उक्त धर्मोके रहनेमें किसी प्रकारका विरोध प्रतिभासित नहीं होता है । जैसेकिसी एक ही पुरुषमें अपने पुत्रकी अपेक्षा पितृत्व और पिताकी अपेक्षा पुत्रत्व इन दोनों विरोधी धर्मों के रहनेमें । एक ही वस्तुमें शीतता और उष्णताके रहनेमें जो विरोध बतलाया जाता है इसमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है, क्योंकि, चीमटा आदिमें एक साथ वे दोनों (अग्रभागकी अपेक्षा उष्णत्व और पिछले भागकी अपेक्षा शीतता) धर्म प्रत्यक्षसे देखे जाते हैं । इसी प्रकार घट-पटादि सभी पदार्थोंमें द्रव्यकी अपेक्षा नित्यत्व और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी दिखनेवाले धर्म भी पाये जाते हैं । कारण कि जब घटका विनाश होता है तब वह कुछ निरन्वय विनाश नहीं होता । किन्तु जो पुद्गल द्रव्य घट पर्यायमें था उसका पौद्गलिकत्व उसके नष्ट हो जानेपर उत्पन्न हुए ठीकरोंमें भी बना रहता है । अत एव पर्यायकी अपेक्षा ही उसका नाश कहा जावेगा, न कि पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा भी । इसी प्रकार अन्य धर्मोके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । इस प्रकार जो जड़बुद्धि पदार्थमें अनेक धर्मोंके प्रतीतिसिद्ध होनेपर भी उनमें से किसी एक ही धर्मको दुराग्रहके वश होकर स्वीकार करते हैं वे स्वयं ही अपने आपका अहित करते हैं ।। ७ ॥ कितने ही जीव किसी शास्त्र आदिके निमित्तसे कुछ थोड़ा-सा ज्ञान पा करके इतने अधिक अभिमानको प्राप्त हो जाते हैं कि वे सभी लोगोंको मूर्ख समझकर अन्य किन्हीं भी विशिष्ट विद्वानोंका आश्रय नहीं लेते ।।८॥ दुखरूप संकुचित मार्गमें ( गड्ढमें ) गिरते हुए प्राणीकी रक्षा धर्म ही करता है । परन्तु दूसरोंके द्वारा इसका स्वरूप भ्रान्तिके वश होकर विपरीत कर दिया गया है । अत एव मनुष्योंको उसे (धर्मको) परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥९॥ जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है ॥ विशेषार्थ-वचनमें असत्यता या तो अल्पज्ञताके कारणसे होती है या फिर हृदयके राग-द्वेषसे दूषित होनेके कारण । इसीलिये जो पुरुष १श सर्ववित् सर्ववेत्ता सर्वशाता वीतरागः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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