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________________ -262:३-१०] ३. अनित्यपञ्चाशत् 260 ) भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वत् । कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ॥ ८॥ 261) दुर्लध्याद्भवितव्यताव्यतिकरान्नष्टे प्रिये मानुषे यच्छोकः क्रियते तदत्र तमसि प्रारभ्यते नर्तनम् । सर्व नश्वरमेव वस्तु भुवने मत्वा महत्याधिया निर्धूताखिलदुःखसंततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम् ॥९॥ 262 ) पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतदध्रुवम् । शोकं मुञ्च मृते प्रिये ऽपि सुखदं धर्म कुरुष्वादरात सर्प दूरमुपागते किमिति भोस्तघृष्टिराहन्यते ॥ १० ॥ पाताय पतनार्थम् । उदेति उदयं करोति । तथा सर्वदेहिनाम् एतत् शरीरं पाताय पतनार्थम् । उदेति उदयं करोति । अतः कारणात् । वकालम् । आसाद्य प्राप्य । निजे खकीये मित्रादौ गोत्रजने वा । संस्थिते मृते सति । कः प्रबुद्धधीः शोकं करोति । न कोऽपि ॥७॥ यद्वत् यथा । वृक्षेषु पत्राणि पुष्पाणि फलानि भवन्ति नूनम् । पुनः खकालं प्राप्य पतन्ति । तद्वत्तथा । कुलेषु पुरुषाः संभवन्ति । च पुनः पतन्ति । अत्र लोके । सन्मतीनां भव्यानाम् । हर्षेण किम् । च पुनः। शोकेन किम् । न किमपि ॥८॥ अत्र संसारे । दुर्लकथात् दुर्निवारात् भवितव्यतास्वरूपात्। प्रिये मानुषे नष्टे सति । यत् शोकः क्रियते तत् । तमसि अन्धकारे । नर्तनं प्रारभ्यते। अहो इति संबोधने । भो भव्याः । भुवने संसारे । सर्व वस्तु । नश्वरं विनश्वरम् । मत्वा ज्ञात्वा। महत्या धिया गरिष्ठबुद्धया। सदा धर्मः सेव्यताम् । किंलक्षणो धर्मः । निर्धूता स्फेटिता अखिलदुःखसंततिः येन सः॥ ९॥ यस्य भविनः जीवस्य । पूर्वोपार्जितकर्मगा। यदा यस्मिन्समये । अवसानम् अन्तः नाशः । विलिखितम् । तस्य भविनः जीवस्य । होनेके लिये होता है उसी प्रकार निश्चयसे समस्त प्राणियोंका यह शरीर भी नष्ट होनेके लिये उत्पन्न होता है । फिर कालको पाकर अपने किसी बन्धु आदिका भी मरण होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष उसके लिये शोक करता है ? अर्थात् उसके लिये कोई भी बुद्धिमान् शोक नहीं करता ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्यका उदय अस्तका अविनाभावी है उसी प्रकार शरीरकी उत्पत्ति भी विनाशकी अविनाभाविनी है। ऐसी स्थितिमें उस विनश्वर शरीरके नष्ट होनेपर उसके विषयमें शोक करना विवेकहीनताका द्योतक है ॥ ७॥ जिस प्रकार वृक्षोंमें पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चयसे गिरते भी हैं, उसी प्रकार कुलों (कुटुम्ब ) में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी हैं । फिर बुद्धिमान् मनुष्योंको उनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और मरनेपर शोक क्यों होना चाहिये ? नहीं होना चाहिये ॥ ८॥ दुर्निवार दैवके प्रभावसे किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर जो यहां शोक किया जाता है वह अंधेरेमें नृत्य प्रारम्भ करनेके समान है । संसारमें सभी वस्तुएं नष्ट होनेवाली हैं, ऐसा उत्तम बुद्धिके द्वारा जानकर समस्त दुःखोंकी परम्पराको नष्ट करनेवाले धर्मका सदा आराधन करो ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अन्धकारमें नृत्यका प्रारम्भ करना निष्फल है उसी प्रकार किसी प्रियजनका वियोग हो जानेपर उसके लिये शोक करना भी निष्फल ही है । कारण कि संसारके सब ही पदार्थ स्वभावसे नष्ट होनेवाले हैं, ऐसा विवेकबुद्धिसे निश्चित है । अत एव जो धर्म समस्त दुःखोंको नष्ट करके अनन्त सुख (मोक्ष) को प्राप्त करानेवाला है उसीका आराधन करना चाहिये ॥९॥ पूर्वमें कमाये गये कर्मके द्वारा जिस प्राणीका अन्त जिस समय लिखा गया है उसका उसी समयमें अन्त होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर मी शोकको छोड़ो और विनयपूर्वक सुखदायक धर्मका आराधन करो। ठीक है- जब सर्प दूर चला जाता है
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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