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________________ ८३ mmmmmniwww -218:२-२०] २. दानोपदेशनम् 216) देवः स किं भवति यत्र विकारभावो धर्मः स किं न करुणानिषु यत्र मुख्या। तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ॥१८॥ 217) किं ते गुणाः किमिह तत्सुखमस्ति लोके सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति । दानवतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मों जगत्रयवशीकरणैकमन्त्रः ॥ १९ ॥ 218) सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशिरेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मीः । आद्यात्परस्तदपि दुर्गत एव यस्मादागामिकालफलदायि न तस्य किंचित् ॥ २०॥ अन्तः मध्ये । येषां गृहिणां गृहस्थानां मनस्सु मुनयः । हि यतः । न संचरन्ति प्रवेशं न कुर्वन्ति । किंलक्षणाः गृहाः। साक्षाचरणोदकेन चरणजलेन । नित्यं पवित्रितं धराग्रप्रदेश येषां ते पवित्रितधराग्रप्रदेशाः। अथ किंलक्षणाः गृहस्थाः। मुनेः स्मृतिवशात् स्मरणवशात् नित्यं पवित्रितशिरःप्रदेशाः॥ १७॥ यत्र यस्मिन् देवे। विकारभावः अस्ति स किं देवः । अपि तु देवः न। यत्र धर्मे । अनिषु दया न प्राणिषु करुणा मुख्या न । स किं धर्मः । अपि तु धर्मः न। तत्किं तपः स किं गुरुः । यत्र तपसि यत्र गुरौ बोधः ज्ञानं न। अथ सा कि विभूतिः। यत्र विभूत्या पात्रदानं न ॥ १८ ॥ यदि चेत् । मानवस्य नरस्य । धर्मः भस्ति । किंलक्षणः धर्मः। दानव्रतादिजनितः दानेन व्रतेन उत्पादितः । पुनः किंलक्षणः धर्मः। जगत्रयवशीकरणैकमन्त्रः। इह लोके ते गुणाः किं ये गुणाः धर्मयकस्य नरस्य वशं न आयान्ति । इह लोके तत्सुखं किं यत्सुखं धर्मयतस्य इह लोके सा विभूतिः किम् । अथ या विभूतिः धर्मयुक्तस्य पुरुषस्य वशं न प्रयाति ॥ १९॥ एकत्र एकस्मिन् जने। सत्पात्रदानेन जनिता उत्पादिता या पुण्यराशिः सा पुण्यराशिः एकजने वर्तते। वा अथवा। परजने द्वितीयजने। नरनाथलक्ष्मीः वर्तते। तदपि भाद्यात् पुण्यराशिसहितजनात् । परः द्वितीयः नरनाथलक्ष्मीवान् । दुर्गतः दरिद्री । एव निश्चयेन । यद्यस्मात्कारणात् । तस्य साक्षात् संचार नहीं करते हैं वे गृह क्या हैं ? अर्थात् ऐसे गृहोंका कुछ भी महत्त्व नहीं है । इसी प्रकार स्मरणके वशसे अपने चरणजलके द्वारा श्रावकोंके शिरके प्रदेशोंको पवित्र करनेवाले वे मुनिजन जिन श्रावकोंके मनमें संचार नहीं करते हैं वे श्रावक भी क्या हैं ? अर्थात् उनका भी कुछ महत्त्व नहीं है ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिन घरोंमें आहारादिके निमित्त मुनियों का आवागमन होता रहता है वे ही घर वास्तवमें सफल हैं । इसी प्रकार जो गृहस्थ उन मुनियोंका मनसे चिन्तन करते हैं तथा उनको आहार आदिके देनेमें सदा उत्सुख रहते हैं वे ही गृहस्थ प्रशंसाके योग्य हैं ॥ १७ ॥ जिसके क्रोधादि विकारभाव विद्यमान हैं वह क्या देव हो सकता है ? अर्थात् वह कदापि देव नहीं हो सकता। जहां प्राणियोंके विषयमें मुख्य दया नहीं है वह क्या धर्म कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है वह क्या तप और गुरु हो सकता है ? नहीं हो सकता । जिस सम्पत्तिमेंसे पात्रोंके लिये दान नहीं दिया जाता है वह सम्पत्ति क्या सफल हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती ॥ १८ ॥ यदि मनुष्यके पास तीनों लोकोंको वशीभूत करनेके लिये अद्वितीय वशीकरणमंत्रके समान दान एवं व्रत आदिसे उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन-से गुण है जो उसके वशमें न हो सकें, वह कौन-सा सुख है जो उसको प्राप्त न हो सके, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन न होती हो ? अर्थात् धर्मात्मा मनुष्यके लिये सब प्रकारके गुण, उत्तम सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ।। १९ ।। एक मनुष्यके पास उत्तम पात्रके लिये दिये गये दानसे उत्पन्न हुए उन्नत पुण्यका समुदाय है, तथा दूसरे मनुष्यके पास राज्यलक्ष्मी विद्यमान है। फिर भी प्रथम मनुष्यकी अपेक्षा द्वितीय मनुष्य दरिद्र ही है, क्योंकि, उसके पास आगामी कालमें फल देनेवाला कुछ भी शेष नहीं है ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह कि सुखका कारण एक मात्र पुण्यका संचय ही होता है । यही कारण है कि जिस व्यक्तिने पात्रदानादिके द्वारा नक गृहस्थाः। २१ बस्ति ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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