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________________ पअनन्वि-पश्चविंशतिः [133:१-२३३आत्मा धर्मो यदयमसुखस्फीतसंसारगर्ता दुद्धृत्य खं सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव ॥ १३३ ॥ 134) नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृभावं गतो नैको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो न चैकान्ततः। कथमपि खास्थ्यं लब्ध्वा प्राप्य । लसद्योगमुद्रावशेष ध्यानमुद्रारहस्ययुक्तम् ॥ १३३ ॥ आत्मा एकान्ततः शून्यो न जडो न भूतजनितः पृथिव्यादिजनितो न कर्तृभावं गतः न। मात्मा एकान्ततः एको न। आत्मा क्षणिको न । आत्मा विश्वविततो न। आत्मा नित्यो न। व्यवहारेण आत्मा कायमितेः कायप्रमाणः । सम्यक् चिदेकनिलयः । च पुनः । कर्ता खयं भोक्ता । ( मोक्ष ) में प्राप्त कराता है उसे धर्म कहा जाता है । कर्मोंके उपशान्त होनेसे प्राप्त हुई द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप सामग्रीके द्वारा अनन्तचतुष्टयस्वरूप स्वास्थ्यका लाभ होता है । इस अवस्थामें एक मात्र ध्यानमुद्रा ही शेष रहती है, शेष सब संकल्प-विकल्प छूट जाते हैं । अब यह आत्मा अपने आपको अपने द्वारा ही संसाररूप गड्डेसे निकालकर मोक्षमें पहुंचा देता है। इसीलिये उपर्युक्त निरुक्तिके अनुसार वास्तवमें आत्माका नाम ही धर्म है-उसे छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता है ॥ १३३ ।। यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथिव्यादि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है, और न नित्य ही है। किन्तु चैतन्य गुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्ता और भोक्ता भी है। वह आत्मा प्रत्येक क्षणमें स्थिरता (ध्रौव्य ), विनाश (व्यय) और जनन (उत्पाद) से संयुक्त रहता है । विशेषार्थ-भिन्न भिन्न प्रवादियोंके द्वारा आत्माके स्वरूपकी जो विविध प्रकारसे कल्पना की गई है उसका यहां निराकरण किया गया है । यथा- शून्यैकान्तवादी (माध्यमिक) केवल आत्माको ही नहीं, बल्कि समस्त विश्वको ही शून्य मानते हैं । उनके मतका निराकरण करनेके लिये यहां 'एकान्ततः नो शून्यः' अर्थात् आत्मा सर्वथा शून्य नहीं है, ऐसा कहा गया है । वैशेषिक मुक्ति अवस्थामें बुद्ध्यादि नौ विशेष गुणोंका उच्छेद मानकर उसे जड जैसा मानते हैं। संसार अवस्थामें भी वे उसे स्वयं चेतन नहीं मानते, किन्तु चेतन ज्ञानके समवायसे उसे चेतन स्वीकार करते हैं जो औपचारिक है। ऐसी अवस्थामें वह स्वरूपसे . जड ही कहा जावेगा । उनके इस अभिप्रायका निराकरण करनेके लिये यहां 'न जडः' अर्थात् वह जड नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है। चार्वाकमतानुयायी आत्माको पृथिवी आदि पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ मानते हैं । उनके अभिप्रायानुसार उसका अस्तित्व गर्भसे मरण पर्यन्त ही रहता है- गर्भके पहिले और मरणके पश्चात् उसका अस्तित्व नहीं रहता । उनके इस अभिप्रायको दूषित बतलाते हुए यहाँ 'न भूतजनितः' अर्थात् वह पंच भूतोंसे उत्पन्न नहीं हुआ है, एसा कहा गया है । नैयायिक आत्माको सर्वथा कर्ता मानते हैं। उनके अभिप्रायको लक्ष्य करके यहां 'नो कर्तृभावं गतः' अर्थात् वह सर्वथा कर्तृत्व अवस्थाको नहीं प्राप्त है, ऐसा कहा गया है। पुरुषाद्वैतवादी केवल परब्रह्मको ही स्वीकार करके उसके अतिरिक्त समस्त पदार्थों का निषेध करते हैं। लोकमें जो विविध प्रकारके पदार्थ देखनेमें आते हैं उसका कारण अविद्याजनित संस्कार है । इनके उपर्युक्त मतका निराकरण करते हुए यहां 'नकः' अर्थात् आत्मा एक ही नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है । बौद्ध (सौत्रान्तिक) उसे सर्वथा क्षणिक मानते हैं । उनके अभिप्रायको सदोष बतलाते हुए यहां १ क भूतजनितो न। २ म श कायमितिः। ३ म श कायप्रमाणम् ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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