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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहार सूत्रम् द्वितीय उद्देशकः ६१२ (B) विद्धंसामो अम्हे, एवं ओहावणा जइ गुरूणं। एएहिं कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा ॥ १२१६॥ दारं ३। ___ एगो बहुसिस्सो आयरितो । सो पडिसेवणाए गिहिभुयत्तमावण्णो। सो अन्नं गणं गंतु : आलोएइ। तेहिं गिहिभूतो विहिउमाढत्तो ततो तस्स सीसा भणंति-मा अम्ह गुरुं गिहिभूयं कुणह, जइ पुण अम्हं गुरूणमेवं ओहावणा कीरिहिति तो अम्हे सव्वे उन्निक्खमिस्सामो। ततो तेसिं अप्पत्तियं मा होहित्ति अगिहिब्भूतो चेव सो उवट्ठाविज्जइ॥ अत्र अक्षरगमनिका-आचार्यस्य गृहिलिङ्गकरणं श्रुत्वा तस्य शिष्या अगीतार्था अनुरागेण भणन्ति मा गृहिकमस्मदीयं गुरुं कुरुत, अथ करिष्यथ तत इदं निशमयत आकर्णयत, एवमपभ्राजना यदि गुरूणां ततो वयं विद्धंसामोत्ति उन्निष्क्रमिष्यामः । एतेन खल्वनन्तरोदितेन कारणेन अगृहीभूतस्य तस्योपस्थापना॥ १२१६ ॥ गतं परमोचापनद्वारम्३ । इदानीम् 'इच्छागणद्वयविवादे' इति द्वारमाह सूत्र २४ गाथा १२१४-१२१९ छोभकसूत्रम् ६१२ (B) For Private and Personal Use Only
SR No.020935
Book TitleVyavahar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages582
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size17 MB
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