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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kalassagarsun Gyarmandie व्याख्या-1GI प्राप्ति 9 शतके उद्देश का॥८४९॥ // 849 // PRAKAKAAKAS वाइए विविहे रोगार्यके परिसहोवसग्गे उदिन्ने अहियासेत्तए, तं नो खल्लु जाया! अम्हे इच्छामो तुझ स्वणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हहिं जाव पब्वइहिसि। ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता पिता विषयने अनुकूल एवी घणी उक्तिओ, प्रज्ञप्तिओ, संज्ञप्तिओ अने विज्ञप्तिओथी कहेवाने, जणाववाने, समजाववाने, विनववाने समर्थ न थया त्यारे नेओए विषयने प्रतिकूल, अने संयमने विषे भय अने उद्वेग करनारी एवी उक्तिओथी समजावता आ प्रमाणे कार्य के 'हे पुत्र! ए प्रमाणे खरेखर निग्रंथ प्रवचन सत्य, अनुत्तर अने अद्वितीय छे. इत्यादि आवश्यक सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् ते सर्व दुःखोनो नाश करनारु छे. परन्तु ते सर्पनी पेठे एकांत-निश्चितहष्टिवाळू, | अस्खानी पेठे एकांत धारवालु, लोढाना जवने चाववानी पेठे दुष्कर, अने वेळुना कोळीयानी पेठे निःस्वाद छे, बळी ते गंगा नदीना सामे प्रवाहे जवानी पेठे, अने वे हाथथी समुद्र तरवाना जेवू ते प्रवचननुं अनुपालन मुश्केल छे. तीक्ष्ण खड्गादि उपर चालवाना जेवू [ दुष्कर ] छे, मोटी शिलाने उचकवा बरोबर छे अने तरचारनी धारा समान व्रतर्नु आचरण करवान छे. हे पुत्र ! श्रमण निर्गयोने 1 आधार्मिक, 2 औद्देशिक, 3 मिश्रजात, 4 अध्यवपूरक, 5 पूतिकृत, 6 क्रीत, 7 प्रामित्य, 8 अच्छेद्य, 9 अनिःसृष्ट, 10 अभ्याहृत, 11 कांतारभक्त, 12 दुर्भिक्षभक्त, 13 ग्लानभक्त, 14 वार्दलिकाभक्त, 15 प्राधूर्णकभक्त, 16 शय्यातरपिंड अने 17 राजपिंड, तेमज मूलनु भोजन, कंदर्नु भोजन, फलनु भोजन, वीजर्नु भोजन अने हरित-(लीलीवनस्पति) नु भोजन खातुं के पीg कल्पतुं नथी. वळी हे पुत्र ! तुं सुखने योग्य छो पण दुःखने योग्य नथी. तेमज टाढ, तडका, भुख, तरश, चोर श्वापद, डांस अने मच्छरना उपद्रवोने, तथा वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक अने संनिपातजन्य विविध प्रकारना रोगो अने तेना दुःखोने, तेमज परिषह अने For Private and Personal Use Only
SR No.020923
Book TitleVyakhyapragnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages238
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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