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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyarmandir ११शत व्याख्या प्रज्ञाप्तिः // 957 // उद्देशा९ // 957 // ॐ कहे छे के मात्र सात द्वीप समुद्रो छे' ते मिथ्या छे, यावत् श्रमण भगवान महावीर ए प्रमाणे कहे छ के-हे आयुष्मन् श्रमण ! जंबूपद्र | द्वीपादि + पो अने लवणादि समुद्रो एक सरखा आकारे छे-इत्यादि पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, यावन् असंख्याता द्वीप-समुद्रो कह्या छे. ताणं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतिय एयमट्ट सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिा भेदम मावन्ने कलुससमावन्ने जाए याचि होत्या, नए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाच कलुससमावन्नस्स से विभंगे अन्नाणे बिप्पामेव परिवडिप, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्म अयमेयारूवे अन्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव सव्वन्नू सव्वदरिसी आगासगएणं चकर्ण जाव सहसंबवणे उजाणे अहापडिरूवं जाव विहरह, तं महाफल ज्वरलु तहारूवाणं अरहताणं भगबताणं नामगोयस्स जहा उवबाइए जाव गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जु. वासामि, एवं णे इहभवे य परभवे य जाब भविस्सइत्तिक एवं संपेहेति // त्यार बाद ते शिवराजर्षि घणा माणसो पासेथी ए वातने सांभळीने अने अवधारीने शंकित कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित अने कलुषित भावने प्राप्त थया, अने शंकित, कांक्षित, संदिग्ब, अनिश्चित अने कलुषित भावने प्राप्त थयेला शिवराजर्षिन विभंग नामे अज्ञान तरतज नाश पाम्युं. त्यार पछी ते शिवराजर्षिने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत् उत्पन्न थयो-"ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर धर्मनी आदि करनारा, तीर्थकर, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छेअने तेओ आकाशमा चालता धर्मचक्रवडे यावत् सहस्राम्रवन: नामे उद्यानमा यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करी यावद् विहरे छे. तो तेवा प्रकारना अरिहंत भगवंतोना नामगोत्रनुं श्रवण करवू ते महा Far Private and Personal Use Only
SR No.020923
Book TitleVyakhyapragnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages238
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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