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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा वैयाकरण केवल अर्थवान् (सार्थक) शब्दों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा करते हैं द्रअर्थवद् अधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् (पा० १.२.४५) : इसलिये 'वन्ध्यासुत' आदि शब्दों की तब तक 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं हो सकती जब तक ये शब्द सार्थक न हों। परन्तु बाह्य अर्थ की दृष्टि से ये शब्द कभी भी सार्थक नहीं हो सकते क्योंकि इन शब्दों का बाह्य अर्थ कुछ होता ही नहीं। इसलिये जब तक इनसे उत्पन्न होने वाले बुद्धिगत अर्थ की सत्ता नहीं मानी जाती तब तक ये शब्द सार्थक नहीं हो सकते। अतः इन शब्दों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा की सिद्धि तथा उसके आधार पर इनसे 'सु' आदि विभक्तियों की प्राप्ति के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि इन्हें अर्थवान् माना जाय या दूसरे शब्दों में इनके बौद्ध अर्थ को स्वीकार किया जाय । ['शश-शृङ्गम्' जैसे प्रयोगों में नैयायिकों के मन्तव्य का खण्डन यत्तु 'शशशृङ गम्' इत्यत्र 'शृङ्गे शशीयत्वभ्रमः' इति तार्किकै रुक्तम्, तन् न । शश-शब्द-वाच्य-जन्तु-दर्शन-रूपबाधे सति 'शश-शृङ गं नास्ति' इति वाक्ये 'शश-शृङ गम्' इत्यस्य प्रातिपदिकत्वानापत्तः । नैयायिकों ने जो यह कहा है कि 'शशशृङ गम्' इस प्रयोग में शृङग में खरगोश के सम्बन्ध होने का भ्रम हो जाता है, वह ठीक नहीं है । क्योंकि इस भ्रान्ति में 'शश' शब्द के वाच्यार्थ जन्तु-विशेष (खरगोश) के दर्शनरूप बाधज्ञान के हो जाने पर 'शशशृग नास्ति' इस वाक्य में 'शशशृङगम्' इस शब्द की (बाह्यार्थ से हीन होने तथा इस रूप में सार्थक न होने के कारण) 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं हो सकती (और तब विभक्ति के न आने से 'शशशृङ गम्' रूप नहीं बन सकता)। नैयायिकों के अनुसार 'शशशृङ गम्' जैसे प्रयोगों में ऐसा होता है कि वहां सींग में 'खरगोश' के सम्बन्ध' की, अर्थात 'खरगोश की सींग है' इस प्रकार की, भ्रान्ति हो जाती है । इस भ्रान्त अर्थवत्ता के आधार पर वे 'शशशृङ गम्' में 'प्रातिपदिक' संज्ञा तथा तदाश्रित कार्य करना चाहते हैं । परन्तु प्रश्न यह है कि खरगोश को सींग रहित देख लेने के पश्चात्, भ्रान्ति का निवारण हो जाने पर, 'शशशृङ गं नास्ति' (खरगोश के पास सींग नहीं है) यह कहते हुए 'शशशृङ्ग' शब्द से, अर्थवत्ता के अभाव में विभक्ति की प्राप्ति कैसे होगी । इसलिये भ्रान्त ज्ञान कह कर उपर्युक्त प्रयोगों की संगति नहीं लगती । अतः ऐसे स्थलों में तो बुद्धि-गत अर्थ मानना ही होगा। १. ह. में "शशशृङगम्' इत्यत्र 'शृङगे" के स्थान पर "शृङ्गे शशशृङ गम्" पाठ है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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