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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण सूत्रों) द्वारा कहे हैं । “स्थानी के अथं को कहने में समर्थ (प्रादेश) की ही प्रादेशता (मानी जाती) हैं' इस भाष्य-प्रतिपादित न्याय के आधार पर, 'आदेशों के तो वे वे अर्थ, (जो 'स्थानी' के हैं), स्वतः होते हैं। इस प्रकार "अर्थ की वाचकता 'स्थानी' में है अथवा 'यादेश' में' यह विचार करना व्यर्थ है । क्योंकि ('स्थानी' तथा 'आदेश') दोनों में ही कल्पित वाचकता है (सत्य नहीं है) । मुख्य वाचकता तो कल्पना से बोधित ('प्रकृति' 'प्रत्यय' के) समुदाय रूप पद तथा (पदों के समुदाय रूप) वाक्य में ही है । तत्र शास्त्र-प्रक्रिया निर्वाहको वर्ण-स्फोट: कुछ विद्वान 'पद-स्फोट' को सत्य मानते हैं तथा 'वर्ण-स्फोट' को असत्य मानते हैं । परन्तु भर्तृहरि आदि प्रमुख वैयाकरण केवल 'वाक्य-स्फोट' को ही सत्य मानते हैं तथा पद-स्फोट' और 'वर्ण-स्फोट' इन दोनों को ही असत्य मानते हैं । इस प्रकार जहां तक 'वर्ण-स्फोट' का सम्बन्ध है, उसे दोनों ही असत्य मानते हैं । परन्तु असत्य होते हुए भी, शब्द-स्वरूप के ज्ञान तथा व्याकरण-शास्त्र की प्रक्रिया के अनुसार शब्द की सिद्धि अथवा निष्पत्ति के लिये ही, वर्ण-स्फोट की कल्पना को स्वीकार किया जाता है। 'वरण-स्फोट' का अभिप्राय यह है कि पदों में 'प्रकृति प्रत्यय' आदि का जो विभाग किया जाता है वे वर्ण रूप विभाग अथवा अंश भी उन उन अभीष्ट अर्थों के बोधक हैं । यहां 'वणं-स्फोट' शब्द में विद्यमान 'वर्ण' पद का अर्थ है पदों के अवयवभूत 'प्रकृति प्रत्यय' प्रादि । 'वर्ण-स्फोट' की स्थिति जिस प्रकार काल्पनिक है उसी प्रकार उपसगं निपात, धातु आदि का विभाग भी सर्वथा काल्पनिक है । न केवल इतना ही अपितु 'लकार' आदि स्थानी तथा उनके स्थान पर होने वाले 'तिप' आदि प्रादेश, जो "लस्य" (पा०३.४.७७) तथा तिप्तझि०" (पा० ३.४.७८) आदि सूत्रों द्वारा विहित हैं, सभी कल्पित ही हैं । व्याकरण शास्त्र में शब्दों की सिद्धि दर्शाने के हेतु ये प्रकृति, प्रत्यय, स्थानी, आदेश, आगम, लोप, विकरण आदि की जो जो बाते हैं वे सब निरी कल्पनायें हैंविद्यार्थियों को शब्दों के यथार्थ स्वरूप-ज्ञान कराने के लिये असत्य उपाय के रूप में उन सबका अाविष्कार पाणिनि अादि ऋषियों ने किया है। स्थानिनां वाचकत्वम् आदेशानां वा--'लकार' ('लट्', 'लिट्', 'लोट' आदि) जिन्हें 'स्थानी' कहा जाता है उन्हें वर्तमान काल' आदि अर्थों का वाचक माना जाय अथवा 'लकारों के स्थान पर आने वाले 'तिप्' आदि आदेशों को उन उन अथों का वाचक माना जाय ? इन दो पक्षों में नैयायिकों का मत यह है कि 'लकार' आदि 'स्थानी' ही वाचक हैं--'तिप्' आदि 'प्रादेश' वाचक नहीं हैं। परन्तु वैयाकरणों में भट्टोजि दीक्षित तथा उनके अनुयायी कौण्डभटट का मत यह है कि 'तिप्' आदि 'आदेश' ही वाचक हैं। दोनों तरह के इन दार्शनिकों ने अपने अपने मतों की पुष्टि में विविध युक्तियां प्रस्तुत की हैं जिन्हें वैयाकरणभूषण (पृ० ४५८-६८) तथा उसकी टीकानों में देखा जा सकता है । इस विषय में आगे 'दशलकारादेशार्थः' के प्रकरण में कुछ विस्तार से विचार किया जायगा। नैयायिक विद्वानों तथा भट्टोजि दीक्षित आदि के द्वारा चलाये गये इस विवाद की और ही नागेश ने यहां संकेत किया है। नागेश की दृष्टि में इस प्रकार के विवाद सर्वथा For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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