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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शक्ति-निरूपण देने से अर्थ-विषयक आकांक्षा समाप्त हो जाती है। यदि किसी पद- समूह के उच्चरित हो जाने पर भी अर्थ - विषयक ग्राकांक्षा समाप्त नहीं होती तो उस पद समूह को वाक्य नहीं माना जा सकता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसीलिये न्याय - भाष्यकार वात्स्यायन ने भी उसी पद समूह को वाक्य माना जो 'अर्थ समाप्ति' (अर्थ के निराकांक्ष ज्ञान) में समर्थ हो । यहां नागेश की पंक्ति में विद्यमान 'अस्य' पद का अभिप्राय है- पदसमूहो वाक्यम् श्रर्थसमाप्तौ यह वाक्य । इस वाक्य में 'समर्थम् ' पद शेष है -- कहा नहीं गया है । अतः स्पष्टता की दृष्टि से इसका अध्याहार कर लेना चाहिये । इस रूप में वात्स्यायन की वाक्य सम्बन्धी परिभाषा होगी - पदसमूहो वाक्यम् अर्थसमाप्तो समर्थम् । अथवा 'अस्य' का अभिप्राय 'अर्थ- समाप्ती' यह पद भी हो सकता है। दोनों स्थितियों में अभिप्राय यही होगा कि अर्थ के निराकांक्ष बोधन में समर्थ, अथवा सशक्त, पदसमूह को वाक्य कहते हैं । दूसरे विकल्प की दृष्टि से लघुमंजूषा ( पृ० १) का 'समाप्त' इत्यस्य 'समर्थम्' इति शेषः अंश द्रष्टव्य है । [ वाक्यस्फोट के स्वरूप-बोधन के लिये प्रकृति-प्रत्यय की कल्पना ] तत्र प्रतिवाक्यं संकेतग्रहासम्भवाद् वाक्यान्वाख्यानस्य लघूपायेन अशक्यत्वाच्च कल्पनया पदानि प्रविभज्य पदे प्रकृतिप्रत्ययभागान् प्रविभज्य कल्पिताभ्याम् अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तत्तदर्थविभागं शास्त्रमात्रविषयं परिकल्पयन्ति स्माचार्याः । वहाँ ( वाक्यस्फोट के प्रमुख होने पर भी ) प्रत्येक वाक्य में संकेत ( वाच्य वाचक-सम्बन्ध) के ज्ञान के असम्भव होने तथा लघु उपाय द्वारा वाक्य का ग्रन्वाख्यान न हो सकने के कारण कल्पना से ( वाक्य में) पदों का विभाग तथा पद में प्रकृति और प्रत्यय रूप अवयवों का विभाजन करके, कल्पित 'अन्वय ' 'व्यतिरेक' के आधार पर उन उन पदों तथा उन उन 'प्रकृतियों' और 'प्रत्ययों' के अलग अलग अर्थों की, जो केवल (व्याकरण) शास्त्र का ही विषय हैं, परिकल्पना ( पाणिनि आदि) प्राचार्यों ने की है । वाक्य-स्फोट के प्रमुख एवं एकमात्र सत्य होने पर भी वैयाकरण वाक्यों का पदों में तथा पदों का 'प्रकृति', 'प्रत्यय' के रूप में विभाग क्यों करते हैं, इस प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया है कि प्रत्येक वाक्य में पूरे वाक्य की दृष्टि से वाच्य वाचकसम्बन्ध का बोध कराना असम्भव है । साथ ही यदि उस तरह का प्रयास किया गया तो भी वह सरल उपाय द्वारा शक्य नहीं है । इसलिये वाक्य का पदों में तथा पदों का 'प्रकृति' एवं 'प्रत्यय' रूप श्रवयवों में काल्पनिक विभाग किया जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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