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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा सम्पूर्ण गौ व्यक्तियों में समान रूप से रहने वाले सामान्य भाव को 'गोत्व' कहा जाता है। यह 'जाति' नित्य एवं निरवयव मानी गयी है । दूसरी ओर 'व्यक्ति' का अभिप्राय है-'द्रव्य' या पृथक् पृथक् रूप से दिखाई देने वाला पदार्थ, जिसको दृष्टि में रख कर, 'यह है' इस प्रकार के, किसी विशिष्ट वस्तु का संकेत करने वाले, सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। जातिवादियों की मान्यता यह है कि शब्द से पहले 'जाति' का ही बोध होता है परन्तु 'जाति' स्वतन्त्र रुप से, 'व्यक्ति' का आश्रयण किये बिना, रह नहीं सकती इसलिये 'जाति' के साथ 'व्यक्ति' का भी बोध बाद में शब्द से होता है। इनकी दृष्टि में प्राकृति ही वाचक है तथा प्राकृति ही वाच्य है- शब्दाकृति वाचक है तथा अर्थाकृति वाच्य है। व्यक्तिवादियों का सिद्धान्त इसके विपरीत है । इनकी दृष्टि में शब्दाकृति से अर्थाकृति का बोध नहीं होता अपितु पृथक २ शब्दों से पृथक २ अर्थों (द्रव्यों अथवा व्यक्तियों) का बोध होता है । इनका एक तर्क यह है कि 'व्यक्ति' को शब्दार्थ मानने पर ही शब्दों के विभिन्न लिङ्गों तथा वचनों की सिद्धि हो पाती है। 'व्यक्ति' में 'जाति' अनिवार्य रूप से रहती ही है इसलिये, शब्द का अर्थ व्यक्ति मानने पर भी, 'व्यक्ति' के साथ साथ 'जाति' का भी बोध शब्द से होता ही है। इस प्रकार यदि वर्ण, पद तथा वाक्य से, व्यक्ति पक्ष के अनुसार, 'वर्णव्यक्ति', 'पदव्यक्ति' तथा 'वाक्यव्यक्ति' का बोध माना जाय और उन्हें अर्थ का बोधक माना जाय तो 'वर्ण-व्यक्ति-स्फोट', 'पद-व्यक्ति-स्फोट' तथा 'वाक्य-व्यक्ति-स्फोट' ये भेद निष्पन्न होते हैं। परन्तु जातिपक्ष की दृष्टि से जब वर्ण, पद तथा वाक्य से वर्णाकृति, पदाकृति तथा वाक्याकृति का बोध अभिप्रेत माना जाय तथा उन्हें अर्थ का बोधक माना जाय तो 'वर्ण-जाति-स्फोट', 'पद-जाति-स्फोट' तथा 'वाक्य-जाति-स्फोट' ये तीन और भेद निष्पन्न होते हैं। वर्णस्फोट-एक एक 'प्रकृति' तथा 'प्रत्यय' से पृथक २ अर्थ की प्रतीति होने के कारण 'प्रकृति' 'प्रत्यय' आदि रूप व्यक्ति की दृष्टि से 'वर्ण-व्यक्ति-स्फोट, तथा प्रकृति, प्रत्यय आदि में स्थित 'सामान्य' अथवा 'जाति' से अर्थ का बोध होता है-भिन्न २ प्रकृति, प्रत्यय आदि व्यक्तियों से नहीं-यह मानते हुए 'वर्ण-जाति-स्फोट' की कल्पना की गयी। यहां 'वर्णस्फोट' में 'सखण्ड-वर्ण-स्फोट', तथा 'अखण्ड-वर्ण-स्फोट' ये दोनों विभाग नहीं बनते, क्योंकि 'प्रकृति', 'प्रत्यय' आदि में विद्यमान वर्णो का पृथक् पृथक् कोई अर्थ नहीं माना जाता। जैसे 'अक' (चुल्) प्रत्यय में 'अ' तथा 'क' वर्गों का अलग अलग कोई अर्थ नहीं है। दूसरे शब्दों में 'प्रकृति' 'प्रत्यय' आदि के अंशभूत वर्ण निरर्थक होते हैं । पदस्फोट-'गौः', 'अश्वः' अथवा 'गच्छति', 'पठति' इत्यादि पद अर्थ-बोधक हैं तथा उनमें भिन्न भिन्न वणों की पृथक् पृथक् पारमार्थिक सत्ता नहीं है इस दृष्टि से 'पदस्फोट' की कल्पना की गयी। ‘पदस्फोट' को तीन प्रकार का माना गया—'पद-जाति-स्फोट', For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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