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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३६ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा ( ' प्राप्तोदक') से सम्बद्ध ग्राम में 'लक्षणा' करने पर भी, "उदक है 'कर्ता' जिसमें ऐसी प्राप्ति का 'कर्म' ग्राम" इस अर्थ का ज्ञान न होने के कारण, 'प्राप्त' इस (पद) के 'कर्त्ता' अर्थ वाले 'क्त' प्रत्यय की 'कर्म' अर्थ में 'लक्षणा' करनी पड़ेगी । उसके बाद भी, "समान-विभक्तिक-नामार्थयोर् अभेद एव संसर्ग : " (एक विभक्ति वाले दो 'प्रातिपदिकार्थों' में केवल 'अभेद' सम्बन्ध ही होता है) इस न्याय के अनुसार, "उदक से भिन्न 'प्राप्ति' (क्रिया) का 'कर्म" यह (अनभीष्ट) अर्थ प्रकट होगा । यदि उदक' का प्राप्ति' में 'कर्तृ'ता' सम्बन्ध से ग्रन्वय किया गया तो ' ( समान विभक्ति वाले) दो प्रातिपदिकार्थो में प्रभेदसम्बन्ध से अन्य होता है' इस न्याय का अतिक्रमण होगा। इसके अतिरिक्त " प्रातिपदिकार्थ' है 'प्रकार' (विशेषण) जिसमें ऐसे 'शाब्द बोध' के प्रति विभक्ति के अर्थ का ज्ञान कारण है" इस न्याय का भी विरोध होगा । (' एकार्थीभाव' सामर्थ्य को मानने वाले) मेरे मत में ( अवयवों की) पृथक् पृथक् 'शक्ति' न मानने तथा ( अवयव से ) विशिष्ट (समुदाय) को (अवयवार्थ से) विशिष्ट अर्थ ( समुदायार्थ) का वाचक मानने के कारण दो 'प्रातिपदिकार्थी' के न होने से कहीं कोई प्रसङ्गति नहीं है । इस रूप में यह विषय समाप्त होता है । श्री शिवभट्ट के पुत्र तथा श्रीमती सतीदेवी के गर्भ से उत्पन्न श्री नागेश भट्ट - रचित परमलघुमञ्जूषा समाप्त हुई । यहां इस प्रकरण के अन्त में कुछ और दोषों का प्रदर्शन करते हुए नागेश ने एक और कारिका उद्धृत की है । यह कारिका भी वैभूसा में समास - शक्ति निर्णय के प्रकरण (१० २७१ ) में उल्लिखित एवं व्याख्यात I चकारादि इति स्थितिः - इस कारिका का अभिप्राय यह है कि 'द्वन्द्व' समास के 'घटपटी' इत्यादि प्रयोगों के विग्रह वाक्य 'घटश्च पटश्च' इत्यादि में 'च' दिखाई देता है । इसलिये 'व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त में 'घटपटौ' इत्यादि 'वृत्ति' के प्रयोगों में भी 'च' का प्रयोग प्राप्त होगा । अतः उसका लोप करना पड़ेगा। यहां कारिका में 'आदि' शब्द से 'इव' आदि का संग्रह अभिप्रेत है जिनका ऊपर इस प्रकरण के प्रारम्भ में प्रदर्शन हो चुका है । जैसे- 'घनश्याम:' में 'इव' का लोप, 'निष्कौशाम्बिः' में 'क्रान्त' का लोप, इत्यादि । 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य अथवा समुदाय में 'शक्ति' मानने पर इस प्रकार का कोई दोष नहीं उपस्थित होता क्योंकि वहाँ 'घटपटी' इस पूरे समुदाय को 'घड़ा और वस्त्र' इस समुदित अभिप्राय का वाचक माना जाता है । इसी प्रकार 'घनश्याम:' यह पूरा समुदाय 'घन -सदृश श्याम' का वाचक है । इसलिये " उक्तार्थानाम् अप्रयोगः” इस न्याय के अनुसार इस पक्ष में 'च', 'इव' आदि के प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं रहती । बहु - व्युत्पत्ति-भंजनम्" .. इति तात्पर्यम् :- कारिका के 'बहुव्युत्पत्तिभंजनम्' इस अंश को स्पष्ट करते हुए नागेश ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि व्यपेक्षावादी नैयायिक विद्वान् यह कहते हैं कि 'राजपुरुषः', 'चित्रगुः' इत्यादि 'वृत्ति' के प्रयोगों में For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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