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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२७ मासादि-वृत्त्यथ (पकाता है) यह (वाक्य) किरा प्रकार विग्रह बन सकता है ? इन दोनों विग्रह वाक्यों में ('वृत्ति' के प्रयोगों से) समानार्थकता नहीं है । इसलिये (इस आशंका के उत्तर में) कहते हैं-- ''तद्धितान्त तथा कृदन्त प्रयोगों का (विग्रह वाक्य के रूप में प्रयुक्त) 'पाख्यात' (तिङन्त पद) थोड़ा बहुत (ही) अर्थ-बोधक होता है (सर्वांशतः नहीं) क्योंकि उन दोनों (तद्धित' तथा 'कृत्' वृत्ति के प्रयोगों और 'तिङन्त' पदों) में गौणता और प्रधानता की दृष्टि से विपरीत स्थिति पाई गयी है।" (अभिप्राय यह है कि) तद्धितान्त' तथा 'कृदन्त' प्रयोगों के अर्थ के कुछ अंश का ही, (इन प्रयोगों के) विवरण भूत (अथवा विग्रह-वाक्य के रूप में प्रयुक्त), 'पाख्यात' अर्थात् 'तिङन्त' पद बोध कराते हैं, (क्योंकि) उन विग्रह वाक्य तथा विगृह्यमाण (वृत्ति-विशिष्ट प्रयोग) में विशेष्य (प्रधान) तथा विशेषण (गौण) की स्थिति का वैपरीत्य देखा गया है। 'कृदन्त' तथा 'तद्धितान्त' प्रयोगों में आश्रय ('कर्ता') की प्रधानता रहती है (तथा 'व्यापार' की गौणता रहती है) और 'तिङन्त' प्रयोगों में 'व्यापार' की प्रधानता रहती है (और आश्रय 'कर्ता' की गौणता रहती है) यह जानना चाहिये । किञ्च . अन्वयप्रसङ्गात् :-यहाँ 'व्यपेक्षावाद' के सिद्धान्त पर एक आक्षेप यह किया गया कि 'राजपुरुषः' इत्यादि प्रयोगों में 'राजन्' इत्यादि अवयवों की किस अर्थ में 'लक्षणा' मानी जाय अर्थात् 'राजन्' शब्द का लक्ष्य अर्थ क्या माना जाय'राजसम्बन्धी' या 'राजसम्बन्ध' । यदि 'राजन्' का लक्ष्य अर्थ 'राजसम्बन्धी' माना गया तथा उसका 'पुरुष' शब्द के अर्थ के साथ अभेदान्वय किया गया तो 'राजपुरुषः' इस समस्त प्रयोग का अर्थ होगा 'राजसम्बन्धी से अभिन्न पुरुष' । परन्तु इसके विग्रह वाक्य (विवरण) 'राज्ञःपुरुषः' में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त है जिसका अर्थ होता है 'सम्बन्ध' । इसलिये उस 'सम्बन्ध' का 'पाश्रयता' रूप से 'पुरुष' अर्थ में अन्वय किया जायगा। इस तरह 'राज्ञः पुरुषः' का अर्थ हुअा 'राजा के सम्बन्ध का आश्रय भूत पुरुष'। इस रूप में दोनों 'वृत्ति' तथा उसके विग्रह वाक्य के अर्थों में पर्याप्त अन्तर पा जायगा जो सर्वथा अवांछनीय है । विग्रह वाक्य वह होता है जो 'वृत्ति'-विशिष्ट प्रयोग के अर्थ को ही दूसरे शब्दों द्वारा प्रकट करता है। इसलिये दोनों के अर्थों में अन्तर नहीं होना चाहिये। इस अभिन्नार्थकता के कारण ही विग्रह वाक्य को विवरण वाक्य भी कहा जाता है तथा इन विग्रह वाक्यों या विवरण वाक्यों को सम्बद्ध 'वृत्ति'-विशिष्ट प्रयोगों की 'शक्ति' अथवा अर्थ का निर्णायक माना गया है। यदि इन दोनों में अर्थ की दृष्टि से अन्तर आ गया तो फिर विवरण वाक्य को 'वृत्ति' की 'शक्ति' का निर्णायक कैसे माना जा सकता है ? इस प्रकार पहला विकल्प दूषित हो जाता है । दूसरा विकल्प, अर्थात् 'राजन्' इस अवयव की 'राज-सम्बन्ध' अर्थ में 'लक्षणा' है अर्थात् 'राजन्' शब्द का लक्ष्य अर्थ 'राज-सम्बन्ध' है, मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि इस स्थिति में 'राजसम्बन्ध रूप अर्थ, राजन्' इस 'प्रातिपदिक' पद का अर्थ होने के कारण, 'प्रातिपदिकार्थ' बन जायगा। उधर 'पुरुष' शब्द का अर्थ 'पुरुष' भी 'प्रातिपदिकार्थ' है। इन दोनों 'प्रातिपदिकार्थों' का परस्पर अभेदान्वय ही किया जा सकता है-- 'भेद' सम्बन्ध For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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