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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१४ वैयाकरण - सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूपा " पदार्थेन अन्वेति न तु तद् - एकदेशेन इस परिभाषा के अनुसार 'राजन्' शब्द के 'पदार्थ' ( ' राजा का सम्बन्धी ' ) के एक भाग 'राज्ञः (राजा का ) के साथ 'ऋद्धस्य' यह विशेषरण प्रयुक्त नहीं हो पाता । 'एकार्थीभाव' को सामर्थ्य मानने वाले यह समाधान नहीं दे सकते । इसका दूसरा कारण यह है कि महाभाष्य में एक वचन है "सविशेषणानां वृत्ति वृत्तस्य वा विशेषणयोगो न " प्रर्थात् विशेषरण सहित पदों का परस्पर समास नहीं होता तथा समासयुक्त पदों के अवयवों का विशेषरण से सम्बन्ध नहीं होता । इस वचन के कारण समस्त पद 'राजपुरुषः' के अवयवभूत षष्ठ्यन्त 'राज्ञः ' पद का 'ऋद्धस्य' इस विशेषण से सम्बन्ध नहीं होता । न वा प्रप्रयोगात् - 'लक्षरणा' वृत्ति का प्राश्रयरण करने से दूसरा लाभ यह होता है कि 'घनश्यामः', 'निष्कौशाम्बिः', 'गोरथ:' जैसे प्रयोगों के विग्रह-वाक्यों में जो क्रमशः 'इव', 'क्रान्त' तथा 'युक्त' शब्दों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु समस्त पदों में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता जिसके कारण एकार्थीभाव-वादी ने इन प्रयोगों की दृष्टि से व्यपेक्षावादी पर विभिन्न अर्थों की वाचनिकता का दोषारोपण किया है, वह सब दोष समाप्त हो जाता है । वह इस प्रकार है कि व्यपेक्षावादी यह मानता है कि 'लक्षणा' के आधार पर 'घनश्याम:' इस समस्त शब्द के 'घन' का अर्थ 'घन इव', 'निष्क्रान्तः' के 'निस' का अर्थ 'निष्क्रान्त' तथा 'गोरथः ' के 'गो' का अर्थ 'गो-युक्त' है । इसलिये इन शब्दों के द्वारा ही इन अभीष्ट ग्रर्थों का ज्ञान हो जाने के कारण समास में पुनः 'इव' आदि शब्दों के प्रयोग किये जाने की आवश्यकता ही नहीं रहती क्योंकि एक प्रसिद्ध नियम है - " उक्तार्थानाम् अप्रयोगः ' अर्थात् उन शब्दों का प्रयोग वक्ता नहीं किया करता जिनके अर्थ, उनके वाचक शब्दों का प्रयोग किये बिना ही, स्वतः वाक्य में प्रकट हो जाते हैं । " नाऽपि 'प्रयोग-नियम-सम्भवात् - " -'लक्षणा' के समाश्रयण से तीसरा लाभ यह होता है कि समास प्रकरण के प्रारम्भ में पाणिनि ने जो "विभाषा" सूत्र बनाया है जिसे 'महाविभाषा' कहा जाता है तथा जिसके द्वारा सभी समासों का विधान विकल्प करके स्वीकार किया जाता है, उस सूत्र को बनाने की प्रावश्यकता अब समाप्त हो जाती है । इस "विभाषा" सूत्र के द्वारा समास-युक्त शब्द तथा उसके विग्रहभूत वाक्य दोनों का प्रन्वाख्यान करने का प्रयास किया गया है । परन्तु 'लक्षणा' का प्राश्रयण करने वाले व्यपेक्षावादियों के यहाँ " विभाषा " सूत्र की प्रावश्यकता स्वतः समाप्त हो जाती 1 है । क्योंकि अब दो प्रकार की स्थितियाँ सामने प्राती हैं । एक वह जिसमें वक्ता 'लक्षरणा' के द्वारा 'राजा सम्बन्धी अभिन्न पुरुष' इस अर्थ को कहना चाहता है तथा दूसरी स्थिति वह है जिसमें, 'लक्षरगा' का सहारा लिये बिना ही, 'राज सम्बन्ध का आश्रयभूत पुरुष' इस अर्थ को वक्ता कहना चाहता है । इन दोनों स्थितियों में से पहली स्थिति में वक्ता समास का प्रयोग करेगा तथा दूसरी में विग्रह वाक्य का । समासावस्था में अवयवभूत शब्दों के साथ विभक्ति के न होने के कारण 'भेद' सम्बन्ध सेव असम्भव है । अतः दोनों अवयवपदों के अर्थों का 'अभेद' सम्बन्ध से अन्वय होगा । परन्तु विग्रह वाक्य में षष्ठी विभक्ति के प्रयुक्त होने के कारण उसके द्वारा सम्बन्ध का कथन कराया जा सकता है । इसलिये वहाँ 'प्राश्रयता' सम्बन्ध से अन्वय होगा । इस प्रकार भिन्न भिन्न विषय होने के कारण समास-युक्त पद तथा विग्रह वाक्य की स्थिति का For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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