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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०५ समासादि-वृत्त्यर्थ 'साम'-विशेष (का वाचक) 'रथन्तर' (शब्द) तथा सेवा (अर्थ का वाचक) 'शुश्रूषा' (शब्द) पहली ('जहत्स्वार्था' वृत्ति) के उदाहरण हैं। ‘राजपुरुषः' इत्यादि (शब्दों) में अन्तिम ('अजहत्स्वार्था' वृत्ति) है (क्योंकि) 'समास' अादि पाँच (वृत्तियों) में (अवयव से) विशिष्ट (समुदाय) में 'शक्ति' (अर्थबोधकता) रहती है, अवयव में नहीं। (परन्तु) 'रथन्तरम्', 'सप्तपर्णः', शुश्रूषा', इत्यादि में अवयवों के अर्थ का अनुभव नहीं होता (इसलिये 'रथन्तरम्', इत्यादि में 'जहत्स्वार्था' वृत्ति है)। ___इसी कारण (भाष्यकार को समुदाय में शक्तिरूप 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य के अभिमत होने के कारण) भाष्य में 'व्यपेक्षा' पक्ष की अवतारणा करके यह कहा गया कि "इस 'व्यपेक्षा सामर्थ्य' में 'एकार्थीभाव' (सामर्थ्य) द्वारा कृत विशेषता के लिये वचन बनाना पड़ेगा" । यहाँ इस भाष्य (के कथन) का आशय यह है कि 'धव-खदिरौ' (धवसहित खदिर), 'निष्कौशाम्बिः , (कौशाम्बी नगरी से बाहर गया हया), 'गोरथः' (जिसमें बैल जुड़े हुए हैं ऐसा रथ), 'घृतघटः' (धी से भरा हुआ घड़ा), 'गुडधानाः' (गुड़ से मिश्रित भुने हुऐ धान), 'केश चुडः' (बालों का समुदायरूप जूड़ा), 'सुवर्णालङ्कारः' (सोने का बना हुआ 'विकार' अर्थात्-याभूषण) 'द्विदशाः' (दो बार आवृत्त दश की संख्या अर्थात् बीस), 'सप्तपर्णः', (प्रत्येक सन्धि में सात-सात पत्तों वाला एक फूल का पौधा) इत्यादि (प्रयोगों) में-- क्रमश: सहित होना, निकला हुआ, युक्त, परिपूर्ण, मिश्रित, समुदाय, विकार, 'सुच' प्रत्यय का लोप, वीप्सा आदिविशिष्ट अर्थ, वचन बना कर, कहने होंगे। 'वृत्ति' शब्द संस्कृत व्याकरण का एक पारिभाषिक शब्द है । 'वृत्ति' की परिभाषा करते हुए पतंजलि ने महाभाष्य (२.१.१ पृ० २८) में कहा है-“परार्थाभिधानं वृत्तिः”। इसका अभिप्राय यह है कि दूसरे शब्द के अर्थ को कहना 'वृत्ति' है । जैसे-'राजपुरुषः' इस समस्त प्रयोग में 'राज' शब्द 'पुरुष' के अर्थ को कहता है तथा 'पुरुष' शब्द 'राजा' के अर्थ को कहता है। परन्तु 'राज्ञःपुरुषः' इस वाक्यावस्था में 'राजा' शब्द केवल अपने अर्थ को कहता है 'पुरुष' शब्द के अर्थ को नहीं कहता है तथा 'पुरुष' शब्द भी केवल अपने ही अर्थ को कहता है, 'राजा' शब्द के अर्थ को नहीं कहता । द्र०--"परस्य शब्दस्य योऽर्थस् तस्य अभिधानं शब्दान्तरेण यत्र सा वृत्तिर् इत्यर्थः । यथा--'राजपुरुषः' इत्यत्र 'राज'--शब्देन वाक्यावस्थायाम् अनुक्तः पुरुषार्थोऽभीधीयते'' (महा० प्रदीप टीका २.१.१ पृ० २८-२६) । वैयाकरण यह मानता है कि शब्द नित्य हैं । इसलिए ऐसा नहीं है कि पहले जो 'राज्ञःपुरुषः' इस प्रकार का वाक्यात्मक शब्द था उसी के स्थान पर विकल्प से षष्ठी तत्पुरुष समास करके 'राज-पुरुषः' यह समासयुक्त शब्द बनाया गया। उसकी दृष्टि में तो 'राजपुरुषः' इत्यादि शब्द सदा इसी रूप में रहते हैं। इस प्रकार के पदों में जो दो या अनेक पदों की कल्पना की जाती है वह तो केवल, स्वतंत्र शब्दों के सादृश्य के आधार पर, शब्दार्थ को स्पष्ट करने के लिये ही है । इस प्रकार, विभक्त काल्पनिक पदों तथा उनके अपने अपने विभक्त अर्थों के एक हो जाने के कारण, इस मत में 'वृत्ति' को 'एकार्थीभाव' For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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