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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामार्थ ३६३ 'प्रातिपदिक' अथवा 'नाम' शब्द 'जाति', 'व्यक्ति', 'लिंग', 'वचन' 'संख्या तथा 'कारक' इन पाँच अर्थों का वाचक है यह वैयाकरणों का सिद्धान्त है । विभक्तियों के होने पर 'कारकों का ज्ञान होता है तथा उनके प्रयुक्त न होने पर 'कारकों' का ज्ञान नहीं होता, इस अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर 'कारकों को प्रत्यय का ही अर्थ माना जाय--यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'दधि तिष्ठति' तथा 'दधि पश्य' इत्यादि प्रयोगों में विभक्ति के प्रयोग के बिना भी क्रमशः 'कर्ता' तथा 'कर्म' कारकों की प्रतीति होती ही है । इस कारण केवल 'अन्वय-व्यतिरेक' के सहारे किसी वास्तविक निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। 'दधि तिष्ठति' तथा 'दधि पश्य' जैसे प्रयोगों में लुप्त प्रत्यय के स्मरण से 'कारकों' का ज्ञान होता है-यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो व्यक्ति व्याकरण की शब्द-सिद्धि आदि की प्रक्रिया को नहीं जानते उन अवैयाकरणों को भी इस तरह के प्रयोगों में 'कारक' का ज्ञान होता ही है। यदि लुप्त प्रत्यय के स्मरण से कारकों का ज्ञान होता तो 'लोप' आदि की प्रक्रिया को जाने बिना 'कारकों' का स्मरण नहीं होना चाहिये क्योंकि स्मरण में पूर्वानुभव या पूर्व ज्ञान कारण होता है। अत: यह स्पष्ट है कि विना लुप्त प्रत्यय के स्मरण के ही 'कारक' का ज्ञान अनेक प्रयोगों में होता है। पतंजलि ने "सरूपाणाम् एक-शेष एक-विभक्तौ". (पा० १.२.६४) तथा "अनभिहिते'' (पा० २.३.१) सूत्रों के भाष्य में 'प्रातिपदिक' शब्दों के अर्थ के विषय में विचार किया है तथा यही निर्णय दिया है कि उपर्युक्त पांचों अर्थ 'प्रातिपदिक' शब्द के ही वाच्य अर्थ माने जाने चाहियें--प्रत्ययों के नहीं । “कुत्सिते'' (पा० ५.३.७४) के भाष्य में किसी प्राचीन प्राचार्य की निम्न कारिका उद्ध त है :-- स्वार्थम् अभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यम् प्राह समवेतम् । समवेतस्य च वचने लिंग वचनं विक्ति च ।। इस कारिका में भी यही स्वीकार किया गया है कि ये पांचों अर्थ 'प्रातिपदिक' शब्द के ही हैं। [शब्द अपने स्वरूप का भी बोधक होता है विशेषणतया शब्दोऽपि शाब्दबोधे भासते, 'युधिष्ठिर प्रासीत्' इत्यादौ 'युधिष्ठिर'-शब्द-वाच्यः कश्चिद् अासीद् इति बोधात् । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते । अनुविद्धम् इव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते ॥ (वाप० १.१२३) For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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