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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामार्थ ३७६ 'सङ्ग्रह' की रचना की थी, यह मानते थे कि शब्द द्रव्यविशेष के बाचक होते हैं"द्रव्याभिधानं व्याडि:' (महा० १.२.६४, पृ० १३१)। इस प्रकार एक वर्ग 'जाति' पक्ष का पोषक है तो दूसरा 'व्यक्ति' पक्ष का। प्राचार्य पाणिनि ने यथावसर दोनों ही पक्षों को अपनाया है। 'जाति' पक्ष की दृष्टि से “जात्याख्यायाम्-'अन्यतरस्याम्" (पा. १.२.५८) सूत्र की रचना प्राचार्य ने की तथा 'व्यक्ति' या 'द्रव्य' पक्ष की दृष्टि से “सरूपाणाम् एक-शेष एक-विभक्तौ" (पा. १.२.६४) सूत्र की रचना उसी आचार्य ने की। वार्तिककार कात्यायन ने भी 'प्राकृति' अथवा 'जाति' पक्ष की दृष्टि से “प्राकृति-ग्रहणात् सिद्धम्' (महा०, भाग० १, पृ० ६६) अथवा “सवर्णेऽरण-ग्रहणम् अपरिभाष्यम् प्राकृतिग्रहणाद् अनन्यत्वम्” (महा० १.१.६८) जैसे वार्तिकों तथा 'व्यक्ति' पक्ष की दृष्टि से "रूप-सामान्याद् वा सिद्धम्" (महा० भा० १, पृ. ६८) जैसे वार्तिकों की रचना की। महाभाष्यकार पतंजलि ने भी कहा है कि जाति-वाचक 'गो' आदि शब्दों से 'जाति' भी कही जाती है तथा 'द्रव्य' या 'व्यक्ति' भी। द्र०-“एवं हि कश्चिन् महति गोमण्डले गोपालकम् आसीनं पृच्छति ‘अस्त्यत्र काञ्चिद् गां पश्यसि' इति । स पश्यति ‘पश्यति चायं गाः' पृच्छति च --'काञ्चिद् अत्र गां पश्यसि' इति । नूनम् अस्य द्रव्य विवक्षितम् इति । तद् यदा द्रव्याभिधानं तदा बहुवचनम् भविष्यति यदा सामान्याभिधानं तदैकवचनम् भविष्यति' (महा० १.२.५८, पृ० ६१-६२) । अत्र मीमांसकाः ' गौरवात् :-मीमांसक विद्वान् शब्दों का अर्थ 'जाति' मानते हैं। इसीलिये इन्हें 'जातिशक्तिवादी' कहा जाता है। यहाँ मीमांसकों के मत को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है । 'जाति' रूप अर्थ में शब्द की शक्ति मानने तथा 'व्यक्ति' रूप अर्थ में शब्द की शक्ति न मानने में प्रथम हेतु यहाँ 'लाघव' दिया गया है। 'व्यक्तियां' अनन्त हैं इसलिये उनकी दृष्टि से शब्दों में अनन्त वाचकता शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। परन्तु 'जाति' में शब्द की शक्ति मानने पर, 'जाति' एक है इसलिये, एक 'शक्ति' से ही कार्य चल जायगा, अनन्त 'शक्तियों' की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। यदि व्यक्तिशक्तिवादी यह कहें कि एक 'व्यक्ति'-विषयक 'शक्ति' से दूसरी 'व्यक्तियों का भी बोध मान लिया जायगा तो गो-व्यक्ति-विषयक 'शक्ति'-ज्ञान से अश्व-व्यक्ति-विषयक ज्ञान भी होने लगेगा। इस प्रकार 'व्यभिचार' दोष उपस्थित होगा। इसलिये यह मानना होगा कि शब्द से जिस 'व्यक्ति'-विषयक शक्ति का ज्ञान होता है उससे बोध भी उसी 'व्यक्ति' विषयक होता है। इस कारण सभी व्यक्तियों' के बोध के लिये अनन्त 'शक्तियों' की कल्पना करनी पड़ेगी। पर यदि शब्द का अर्थ 'जाति' माना जाता है तो 'जाति' के एक होने के कारण एक प्रकार की 'शक्ति' मानने से ही कार्य चल जायगा । नागहीत.... तात्पर्यात :--यदि यह कहा जाय कि "नागृहीत-विशेषणा बुद्धिर् विशेष्य उपजायते” इस न्याय की दृष्टि से 'विशेषण' तथा 'विशेष्य', अर्थात् क्रमशः 'जाति' तथा 'व्यक्ति', दोनों में शब्द की 'शक्ति' मानना आवश्यक है क्योंकि जब तक 'विशेषण' अर्थात् (जाति) का ज्ञान न हो तब तक 'विशेष्य' (व्यक्ति) का ज्ञान नहीं हो सकता -यह सिद्धान्त उपयुक्त न्याय में प्रतिपादित किया गया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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