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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७६ वैयाकरण सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा शब्द के साथ ही षष्ठी विभक्ति का प्रयोग क्यों होता है, कभी 'पुरुष' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति का नियोजन करके 'राजा पुरुषस्य' प्रयोग क्यों नहीं किया जाता ? तुलना करो : - " यथैव तर्हि राजनि स्वकृतं स्वामित्वं तत्र षष्ठी भवति एवं पुरुषेऽपि स्वामिकृतं स्वत्वं तत्र षष्ठी प्राप्नोति" (महा० २.३.५० ) । प्रश्न का उत्तर यह दिया गया कि यहाँ 'राजा रूप स्वामी का पुरुष रूप स्वम् (सम्पत्ति ) ' यह अर्थ विवक्षित है। इसलिये इस विवक्षा को प्रकट करने के लिये केवल 'राजन्' शब्द के साथ ही षष्ठी विभक्ति आ सकती है। कारण यह है कि इस स्थिति में ही 'राजन' शब्द के साथ आई षष्ठी विभक्ति रूप ' प्रत्यय' का अर्थ प्रधान अथवा विशेष्य होगा क्योंकि एक परिभाषा है " प्रकृत्यर्थ- प्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यम्" ( प्रकृति के अर्थ तथा प्रत्यय के अर्थ में प्रत्यय के अर्थ की प्रधानता होती है) । षष्ठी विभक्ति प्रत्यय है, इसलिये उस के अर्थ – 'सम्बन्ध' - में, 'राजन्' शब्द जो प्रकृति है उसका अर्थ विशेषण होगा । और यह 'सम्बन्ध' 'पुरुष' शब्द के अर्थ के प्रति विशेषरण बनेगा | इस प्रकार 'राज्ञः पुरुष' का अर्थ होगा- 'राजा के सम्बन्ध से युक्त पुरुष' । इस अर्थ को ही प्रकट करना वक्ता को यहाँ प्रभीष्ट I परन्तु यदि 'राजा पुरुषस्य' इस रूप में 'पुरुष' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया तो उलटी स्थिति हो जायगी । षष्ठी विभक्ति का अर्थ 'सम्बन्ध', प्रत्ययार्थ होने के कारण उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार, प्रधान अथवा विशेष्य होगा तथा पुरुष, प्रकृत्यर्थ होने के कारण, विशेषण होगा । इस रूप में 'पुरुष' से विशिष्ट 'सम्बन्ध' 'राजा' का विशेषण होगा। अतः 'पुरुष के सम्बन्ध से युक्त राजा' यह अर्थ प्रकट होगा । परन्तु वक्ता को 'राजा सम्बन्धी पुरुष' इस अर्थ को प्रकट करना अभीष्ट है । इसलिये 'पुरुष' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता । 'पुरुष' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तो तभी हो सकता है जब 'पुरुष के सम्बन्ध से युक्त राजा' या 'पुरुष का राजा' यह अर्थ विवक्षित हो । 'पुरुष' शब्दात् षष्ठ्यां’...आापत्तेः - 'राजा सम्बन्धी पुरुष' इस अर्थ के विवक्षित होने पर भी यदि 'राजन्' के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग न करके 'पुरुष' के साथ उसका प्रयोग किया गया तो एक विशेष कठिनाई प्रायेगी । 'सम्बन्ध' षष्ठी विभक्ति का अर्थ है इसलिये, प्रत्ययार्थ होने के कारण, प्रकृत्यर्थ 'पुरुष' की अपेक्षा 'सम्बन्ध' की प्रधानता होनी चाहिये, अर्थात् 'पुरुष' विशेषरण तथा 'सम्बन्ध' विशेष्य बनना चाहिये । परन्तु यहाँ वक्ता की विवक्षा में 'सम्बन्ध' विशेषरण है तथा 'पुरुष' विशेष्य । इस प्रकार उपर्युक्त न्याय का प्रतिक्रमण होता है । अत: 'पुरुष' शब्द से षष्ठी विभक्ति इस विवक्षा में नहीं श्री सकती । तुलना करो - "राजन् शब्दाद् उत्पद्यमानया षष्ठ्या अभिहितः सोऽर्थ इति कृत्वा पुरुषशब्दात् षष्ठी न भविष्यति । न तहि इदानीम् इदं भवति 'पुरुषस्य राजा' इति ? भवति । राजशब्दात्तु तदा प्रथमा" (महा० १.३.५०, पृ० ३१५) । इसी तथ्य को उपर्युद्धत कारिका "भेद्य भेदकात् " में स्पष्ट किया गया है। इस कारिका का अभिप्राय यह है कि 'भेद्य' तथा 'भेदक' अर्थात् 'प्रतियोगी' 'तथा अनुयोगी' या दूसरे शब्दों में विशेषरण तथा विशेष्य दोनों में ही एक सम्बन्ध रहता है । परन्तु 'भेदक' (विशेषण) शब्द से ही षष्ठी विभक्ति होती है- 'भेद्य' से नहीं। इसका कारण यह है For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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